सोमवार, 27 जनवरी 2014

अब बदल पाएंगे अपनी आँखों के रंग को।

रंगीन कॉन्टेक्ट लेंस युवा पीढ़ी के बीच काफी लोकप्रिय हो गए हैं। 25 वर्षीय फैशन मॉडल पुनीत शर्मा, जब स्कूल में पढ़ रहे थे, तभी उन्हें नीली आंखों के प्रति आकर्षण हो गया था। शर्मा कहते हैं, जब मैं 15 साल का था, तभी से कॉन्टेक्ट लेंस का इस्तेमाल करता आ रहा हूं, लेकिन बाद में मेरी आंखों में संक्रमण होना शुरू हो गया।

मेरे माता- पिता भी मुझे कॉन्टेक्ट लेंस से छुटकारा दिलाना चाहते थे, क्योंकि मेरी आंखों की समस्याओं के कारण वे बार- बार नेत्ररोग विशेषज्ञ के पास जाकर थक चुके थे। पुनीत ने मुझसे मुलाकात की। मैंने कृत्रिम आईरिस इंप्लांटेशन किया। सर्जरी के लिए उपयुक्त पाये जाने से पहले उन्हें कई प्रकार के परीक्षण कराने को कहा गया। प्रत्येक आंख की सर्जरी में 10 मिनट का समय लगा और और 6 से 7 घंटे तक स्वास्थ्य लाभ करने के बाद उन्हें अपनी पसंदीदा नीली आंखों के साथ घर जाने के लिए कह दिया गया।

प्राकृतिक रंग का निर्धारण:- किसी भी व्यक्ति की आंखों का प्राकृतिक रंग मेलानिन की मात्रा, रक्त वाहिकाओं के नेटवर्क और आंख में टिश्यूज की बनावट से निर्धारित होता है। सालों से नेत्र विशेषज्ञ ऐसे लोगों को जो अपनी आंखों का रंग बदलना चाहते हैं, उन्हें रंगीन कॉन्टेक्ट लेंस लगाने की सलाह देते रहे हैं, लेकिन अब कृत्रिम आईरिस इंप्लांटेशन सर्जरी के जरिये आंखों का रंग स्थायी रूप से बदला जा सकता है।

सजगता बरतना जरूरी:- कलर्ड या रंगीन कॉन्टेक्ट लेंस सिर्फ अलग-अलग रंग के साथ आंखों का रंग बदल देते हैं, लेकिन लंबे समय तक इन लेंसों के पहनने पर कॉर्निया (नेत्रगोलक की ऊपरी पर्त) में खुजली, कॉर्निया में संक्रमण या अल्सर, कन्जंक्टिवाइटिस और दृष्टि में कमी जैसी समस्याएं पैदा हो सकती हैं, लेकिन नेत्र विशेषज्ञ से परामर्श लेकर कॉन्टेक्ट लेंस के बारे में कुछ सजगताएं बरतकर काफी हद तक इन समस्याओं को दूर किया जा सकता है।

सर्जिकल प्रक्रिया:- डॉक्टर, प्राकृतिक आईरिस (आंख का वह भाग जिसमें रंग होता है और जो आपकी आंखों के प्राकृतिक रंग को निर्धारित करता है) पर कृत्रिम आईरिस का इंप्लांटेशन कर देते हैं। इस सर्जरी को सिर्फ प्रशिक्षित आई सर्जन ही अंजाम देते हैं।

(डॉ.शिबू वार्की आई सर्जन, नई दिल्ली)

शनिवार, 25 जनवरी 2014

सर्दियों में कंधे के दर्द में बरतें सावधानी

आजकल कंधे के दर्द की समस्या आम होती जा रही है। आखिर क्या कारण हैं कंधे में दर्द के, इससे जुड़े कौन से रोग हैं और क्या हैं इनके उपचार, बता रहे हैं मैक्स अस्पताल, पीतमपुरा, के आथरेपेडिक्स और ज्वॉइंट रिकंस्ट्रक्शन के प्रमुख डॉ. निश्चल चुघ

कंधे का दर्द एक बहुत ही आम शिकायत है। सर्दियों के दौरान तो यह अक्सर बुजुर्ग महिलाओं में देखने को मिलता है। भारत में कंधे के दर्द की घटनाएं लगभग 68 प्रतिशत लोगों में देखी जाती है।

दरअसल, हमारा कंधा तीन हड्डियों से बना है। ऊपरी बांह की हड्डी, कंधे की हड्डी और हंसली। ऊपरी बांह की हड्डी का शीर्ष कंधे के ब्लेड के एक गोल सॉकेट में फिट रहता है। यह सॉकेट ग्लेनोइड कहलाता है। मांसपेशियों और टेंडन्स का संयोजन बांह की हड्डी को कंधे के सॉकेट में केंद्रित रखता है। ये ऊतक रोटेटर कफ कहलाते हैं। वैसे तो कंधा खेल गतिविधियों और शारीरिक श्रम के दौरान आसानी से घायल हो जाता है, लेकिन ज्यादातर कंधे की समस्याओं का प्राथमिक स्त्रोत रोटेटर कफ में पाये जाने वाले आसपास के कोमल ऊतक का उम्र के कारण प्राकृतिक रूप से बिगड़ना है। रोटेटर कफ में तकलीफ की स्थिति 60 वर्ष से अधिक उम्र वालों में ज्यादा देखी जाती है। कंधे के अत्यधिक प्रयोग से उम्र की वजह से होने वाली गिरावट में तेजी आ सकती है।

कंधे के दर्द के मुख्य कारण:- फ्रोजन शोल्डर में ज्वॉइंट यानी जोड़ बहुत तंग और कड़ा हो जाता है, जिससे सरल क्रियाओं जैसे हाथ को ऊपर उठाने आदि में भी दिक्कत होने लगती है। अकड़न और तकलीफ रात में अधिक बढ़ जाती है। यह आमतौर पर अधिक उम्र की महिलाओं में व थायराइड और मधुमेह के रोगियों में पाया जाता है। इसके उपचार में दर्द निवारक दवाएं, हल्के-फुल्के स्ट्रेचिंग वाले व्यायाम आदि करने की सलाह दी जाती है। बाद में दवाओं की भी जरूरत पड़ती है। असल में पचास साल की उम्र के करीब 50 प्रतिशत लोगों के कंधे के एमआरआई स्कैन पर रोटेटर कफ के डिजनरेशन के प्रमाण देखे गए हैं। उम्र बढ़ने के साथ तकलीफ बढ़ती जाती है। आमतौर पर रोटेटर कफ के शिकार व्यक्ति को कंधे के ऊपर और बाहर की ओर की तिकोना पेशी पर दर्द महसूस होता है। कपड़े पहनने और तैयार होने में हाथ में दर्द होने लगता है। कंधा भी कमजोर लगने लगता है और कंधा हिलाने पर चटक की सी आवाज सुनाई देती है।

रोटेटर कफ रोग के उपचार :- इसका उपचार रोग की स्थिति पर निर्भर करता है। यदि इस रोग की शुरुआत है तो कंधे को आराम देने, हीट और कोल्ड थेरेपी, फिजियोथेरेपी, स्टेरॉयड के इंजेक्शन आदि से इलाज किया जाता है। यदि रोग बढ़ जाता है तो रोटेटर कफ को ठीक करने के लिए ऑर्थोस्कोपिक आदि की आवश्यकता पड़ती है। यह समस्या लम्बे समय तक रहती है तो गठिया का रूप भी ले सकती है।

गुरुवार, 23 जनवरी 2014

ऐसे पाएं सर्दियों में डैंड्रफ फ्री बाल

बालों में डैंड्रफ की समस्या सर्दियों में अधिक बढ़ जाती है क्योंकि सर्दियों में त्वचा और बालों में खुश्की ठंडी हवाओं के कारण ज्यादा आ जाती है। पानी कम पिया जाता है। गर्म पानी से स्नान और गर्म पेयों का सेवन भी बढ़ जाता है। इससे शरीर की त्वचा और बालों में खुश्की बढ़ जाती है और बाल भी अधिक गिरने लगते हैं।

गर्म पानी से सिर धोने के कारण सिर की त्वचा की तैल ग्रंथियां ज्यादा तेल निकालती हैं जिससे रूसी बनती है। अगर आप भी परेशान हैं इस समस्या से तो ध्यान दें कुछ बातों पर जिससे आपके बाल भी रह सकें डैंड्रफ फ्री।

● बालों में बार-बार कंघी करने से तैल ग्रंथियां सक्रिय हो जाती हैं और तेल अधिक निकलता है जिससे रूसी बनती है। बालों में कंघी दिन भर में तीन-चार बार ही करें।

● आपके बाल अधिक खुश्क हैं तो बालों में कुनकुने तेल की मालिश सप्ताह में एक बार अवश्य करें और गर्म पानी से भीगा तौलिया बालों पर लपेट लें। ठंडा होने पर माइल्ड शैम्पू से बाल धो लें।

● बालों को गंदा न रहने दें। सप्ताह में दो बार बाल अवश्य धोएं।

● रूसी होने पर नारियल तेल में एक नींबू का रस मिलाएं और सिर पर लगाएं। 30-40 मिनट पश्चात शैम्पू कर लें।

● जैतून के तेल में अदरक के रस की कुछ बूंदें मिलाएं और बालों की जड़ों में लगाएं। 30-40 मिनट पश्चात बाल शैम्पू से धो लें।

● धोने के बाद बालों की कंडीशनिंग अवश्य करें ताकि बालों की नमी खत्म न होने पाए।

● अगर आप बालों में मेहंदी लगाते हैं तो उसमें एक चम्मच तेल अवश्य मिलाएं।

● बालों को धोने से पहले बालों में ब्रश या कंघी अवश्य कर लें ताकि तैल ग्रंथियां सक्रिय हो सकें। इससे डैड सैल्स भी खत्म होते हैं। तैल ग्रंथियों से तेल बालों को धोते समय निकल जाता है।

● दो कप पानी में दो चम्मच थाइम डालकर उसे बालों की जड़ों में लगा लें। बाद में बाल शैम्पू कर लें। थाइम एंटीसैप्टिक होता है जो डैंड्रफ रोकने में मदद करता है। बालों की शाइनिंग बरकरार रखने के लिए

● बालों पर अच्छे हेयर प्रोडक्ट्स का प्रयोग करें।

● बालों में आयरनिंग और पमिंग करने से बचें।

● बालों की सप्ताह में एक बार तेल से मसाज अवश्य करें।

●कोई भी हेयर कलर लगाने से पूर्व उसकी पूरी जानकारी ले लें। आंख मूंदकर प्रयोग में न लाएं।

रविवार, 19 जनवरी 2014

पेट(stomach) के कैंसर को समय रहते ठीक कर सकते हैं।

पेट में किसी भी कोशिका (सेल) के असामान्य या अनियंत्रित तरीके से बढ़ने को सहज भाषा में पेट का कैंसर कहा जाता है। ये पेट की भीतरी परतों में फैलता हुआ धीरे-धीरे बाहरी परतों पर आता है। इसलिए शुरुआत में इस बीमारी का पता भी नहीं चल पाता है।

लक्षण:-

इस रोग की शुरुआती अवस्था में लक्षण स्पष्ट रूप से प्रकट नहीं होते। रोग के लक्षण काफी हद तक अल्सर या पेट के अन्य विकारों जैसे होते हैं, जिन्हें अक्सर लोग नजरअंदाज कर देते हैं। फिर भी इन लक्षणों के प्रकट होने पर सजग हो जाना चाहिए..

● अक्सर बदहजमी की शिकायत।

● पेट में अक्सर दर्द महसूस करना।

● भूख में कमी महसूस होना और खाए बगैर पेट भरा हुआ महसूस करना।

● काले रंग का मल निकलना।

● खाना खाने के बाद उल्टी होना।

● जी मिचलाना।

● वजन का कम होते जाना।

●पीड़ित व्यक्ति का रक्त की कमी (एनीमिया) से ग्रस्त होना।

इलाज:- अगर समय रहते इन समस्याओं में सुधार न हो रहा हो, तो पीड़ित लोगों को गैस्ट्रोएन्टेरोलॉजी विशेषज्ञ से परामर्श लेने में देर नहीं करना चाहिए। विशेषज्ञ डॉक्टर को अगर रोगी में पेट के कैंसर का अंदेशा होता है, तो डॉक्टर एंडोस्कोपी करते हैं जिससे रोगी में कैंसर होने की जानकारी मिल जाती है। कैंसर के पता चलने के बाद गैस्ट्रोएन्टेरोलॉजी विशेषज्ञ द्वारा एंडोस्कोपिक अल्ट्रासाउंड ( ई यू एस) के जरिये बीमारी की गहन जानकारी हासिल की जाती है। इसके बाद एंडोस्कोपिक सर्जन एंडोस्कोपिक विधि द्वारा पेट के कैंसरग्रस्त भाग को ऑपरेशन के बगैर निकाल देते हैं। इस प्रक्रिया में एंडोस्कोप और दूसरे उपकरणों की मदद से कैंसर टिश्यू या दूसरे असामान्य टिश्यू को पाचन तंत्र (डाइजेस्टिव सिस्टम) से हटा दिया जाता है।

एंडोस्कोपिक अल्ट्रासाउंड(ई यू एस)प्रक्रिया के फायदे

● इस प्रक्रिया के द्वारा ऑपरेशन के बगैर पेट के कैंसर के बारे में गहन जानकारी हासिल कर ईयूएस द्वारा ही इलाज किया जाता है।

● सीटी स्कैन और एक्स रे की तरह इसमें रेडिएशन नही होता।

● इससे रोगी सर्जरी करवाने से बच सकता है।

● रोगी को बहुत कम समय के लिए अस्पताल में रखा जाता है।

● यह तकनीक काफी सटीक और सुरक्षित है।

ई यू एस और पारंपरिक एंडोस्कोपी में फर्क:- पारंपरिक एंडोस्कोपी में डॉक्टर और सर्जन रोगी के पेट की सिर्फ सबसे अंदरूनी पर्त (लाइनिंग) को ही देख सकते हैं, लेकिन विशेषज्ञ डॉक्टरों को 'ई यू एस' पेट की सभी पर्र्ते देखने में मदद करता है। इसके अलावा पेट के बाहर के अंगों को भी अच्छी तरह से देखा जा सकता है। ईएसयू प्रक्रिया अल्ट्रासांउड और एंडोस्कोपी विधि का मेल है। रोग की डाइग्नोसिस कर इसी प्रक्रिया के जरिये रोग का सटीक व कारगर इलाज संभव है। इस प्रक्रिया की मदद से गैस्ट्रिक कैंसर का शुरुआती अवस्था में पता लगाकर कारगर इलाज संभव है।

(डॉ.रणधीर सूद सीनियर गैस्ट्रोइंटेरोलॉजिस्ट, मेदांता दि मेडिसिटी, गुड़गांव)

शनिवार, 18 जनवरी 2014

प्रेम हॉर्मोन क्या होता है?

क्या आपने कभी सोचा है कि जब आप किसी शोरगुल वाले स्थान पर होते हैं। तब आप सिर्फ उसी व्यक्ति की बात क्यों सुन पाते हैं, जो आपके सामने है या जिसे आप सुनना चाहते हैं। बाकी लोगों की आवाज पर आपका ध्यान क्यों नहीं जाता।

ऐसा हमारे मस्तिष्क में मौजूद सामाजिक और पैतृक संबधों को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले 'प्रेम हॉर्मोन' के कारण ऐसा होता है, जिसे ऑक्सीटोसिन कहते हैं।

अनुसंधानकर्ताओं ने बताया है कि ऑक्सीटोसिन किस तरह एक न्यूरो हॉर्मोन की तरह काम करते हुए न केवल हमारे दिमाग से पीछे के शोर को कम कर देता है, बल्कि वांछित संकेतकों को प्रबल बना देता है।

एनवाईयू लैंगोन मेडिकल सेंटर के न्यूरोसाइंस इंस्टीट्यूट के निदेश रिचर्ड डब्ल्यू सीन ने कहा, "दिमाग के माध्यम से सूचना भेजने में ऑक्सीटोसिन की भूमिका महत्वपूर्ण है।" अध्ययनों में पाया गया है कि ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसॉर्डर (एएसडी) से पीड़ित बच्चों में ऑक्सीटोसिन का स्तर कम होता है।

वर्तमान अध्ययन जेनेवा के शोधकर्ताओं द्वारा 30 साल पहले हुए शोध के परिणामों पर किया गया है, जिसमें बताया गया था कि ऑक्सीटोसिन दिमाग के स्मृति और ज्ञान वाले हिस्से, जिसे हिप्पोकैंपस कहते हैं, में सक्रिय होता है। यह हॉर्मोन तंत्रिका कोशिकाओं को प्रेरित करता है और गाबा नामक एक रसायन बनाता है, जो तंत्रिका कोशिकाओं को शिथिल कर देता है।

डॉ. सीन ने कहा, "पिछले अनेक परिणामों के आधार पर हमें लगा कि ऑक्सीटोसिन, पीछे के शोर और जरूरी संकेतों को स्थिर करके दिमाग को हर तरह से शिथिल कर सकता है। लेकिन इसकी जगह हमने पाया कि ऑक्सीटोसिन प्रेरित आवेगों की विश्वस्नीयता बढ़ाता है, जो दिमाग के लिए अच्छा है। लेकिन यह बहुत अप्रत्याशित है।" एनवाईयू लैंगोन मेडिकल सेंटर में न्यूरोसाइंस एवं साइकॉलजी के प्रोफेसर, डॉ. गॉर्ड फिशेल ने बताया, "ऑक्सीटोसिन की एक ही क्रिया से मजबूत संकेत और शोर का दबा वातावरण एकसाथ पैदा होते हैं।"

मंगलवार, 14 जनवरी 2014

गर्भावस्था के स्ट्रैच मार्क्स

एक हालिया सर्वेक्षण में सामने आया है कि भारतीय महानगरों और उप नगरों में नई तथा बनने वाली 87 प्रतिशत माँऐं डिलीवरी से पहले या बाद में अपने शरीर की दिखावट को लेकर चिंतित रहती हैं। 90 प्रतिशत नई तथा बनने वाली मां इस बात से सहमत हैं कि स्ट्रैच मार्क्स उनके लिए सर्वाधिक चिंता का विषय होते हैं।

क्या हैं गर्भावस्था के स्ट्रैच मार्क्स :जच्चा-बच्चा विशेषज्ञों के अनुसार जैसे-जैसे पेट के अंदर बच्चा विकसित होता है तो इसके आसपास की त्वचा में खिंचाव आता है। हालांकि हमारी त्वचा में एक निश्चित मात्रा तक लचक होती है, फिर भी त्वचा में इसके सामर्थ्य से अधिक खिंचाव आता है। कुछ निश्चित प्रकार की गर्भावस्था में यदि बच्चा आकार में बड़ा हो तो दबाव बहुत अधिक होता है।

गर्भावस्था के बाद जब पेट का अतिरिक्त वजन कम हो जाता है तो खिंची हुई त्वचा ढीली हो जाती है जिससे अक्सर मार्क्स रह जाते हैं। इनसे छुटकारा पाना मुश्किल होता है। यह एक सामान्य परिघटना है और हर गर्भस्थ महिला के लिए यह एक डरावने सपने की तरह है।

कब सामने आते हैं स्ट्रैच मार्क्स: विशेषज्ञों के अनुसार अधिकतर महिलाओं में ये मार्क्स गर्भावस्था के छठे या सातवें महीने के बाद सामने आना शुरू हो जाते हैं। गर्भावस्था के बाद ये मार्क्स अधिक दिखने लगते हैं क्योंकि महिला का वजन कम होना शुरू हो जाता है।

डाक्टरों के अनुसार स्ट्रैच मार्क्स आनुवांशिक भी हो सकते हैं। यदि आपकी माता या बहन में भी स्ट्रैच मार्क्स थे तो आप में भी इनके होने की संभावना है। अधिक वजन वाली महिलाओं में ये मार्क्स ज्यादा पाए जाते हैं। गोरी रंगत वाली महिलाओं में गुलाबी रंग के जबकि सांवली रंगत वाली महिलाओं में हमारी स्किन टोन से थोड़े हल्के स्ट्रैच मार्क्स पाए जाते हैं।

सिर्फ पेट पर स्ट्रैच मार्क्स एक भ्रांति: भारतीय महिलाओं का मानना है कि स्ट्रैच मार्क्स सिर्फ पेट पर ही उभरते हैं। यह एक भ्रांति है। गर्भावस्था के दौरान पडऩे वाले स्ट्रैच मार्क्स हो सकता है पेट के आसपास के क्षेत्र पर ही दिखते हों परन्तु ये जांघों पर और यहां तक कि घुटनों से लेकर बांहों पर भी हो सकते हैं।

स्ट्रैच मार्क्स का इलाज: माँओं के लिए यह समझना महत्वपूर्ण है कि स्ट्रैच मार्क्स से बचना पूरी तरह संभव नहीं है। ये मार्क्स गर्भावस्था की देन हैं। कई मामलों में ये गायब होने में 5 से 6 साल का समय लेते हैं। स्ट्रैच मार्क्स को कम करने के लिए एक दिन में दो या तीन बार कोको या शिया बटर से अपनी स्किन को मॉइश्चराइज करने से बहुत सहायता मिलती है। बॉडी ऑयल्स तथा क्रीम्स का नियमित प्रयोग गर्भावस्था के दौरान बहुत जरूरी है क्योंकि इस दौरान महिलाओं की त्वचा अधिक सूखी हो जाती है।

जिन क्रीम्स में ट्रैटीनोइन और टाजारोटीन मौजूद होते हैं वे स्ट्रैच स्ट्रैच मार्क्स के अंदर कोलाजैन का पुन: निर्माण कर सकते हैं और उनकी दिखावट को सुधार सकते हैं लेकिन इनका इस्तेमाल गर्भावस्था के दौरान नहीं किया जाना चाहिए। ग्लाइकोलिक एसिड भी इसी तरह का काम करता है और इसे क्रीम के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है।

कॉस्मैटिक प्रक्रियाओं का इस्तेमाल: जो महिलाएं स्ट्रैच स्ट्रैच मार्क्स से छुटकारा पाना चाहती हैं उनमें कॉस्मैटिक ट्रीटमैंट्स भी एक बढिय़ा विकल्प साबित हो रहे हैं। विशेषज्ञों के अनुसार चीर-फाड़ की प्रक्रिया के बिना स्ट्रैच स्ट्रैच मार्क्स को पूरी तरह दूर करना असंभव है क्योंकि यह त्वचा के डर्मिस (मध्यम परत) पर पडऩे वाले दाग हैं। साथ ही विशेषज्ञ यह चेतावनी भी देते हैं कि ट्रीटमैंट्स सिर्फ गर्भावस्था के बाद ही करवाई जानी चाहिए। आइए जानते हैं

कुछ आम कॉस्मैटिक प्रक्रियाओं के बारे में-

एब्डोमिनोप्लास्टी: इसे ‘टमी टक’ के नाम से भी जाना जाता है। यह एक आम सर्जीकल प्रक्रिया है जिसे गर्भावस्था के बाद नजर आने वाले स्ट्रैच स्ट्रैच मार्क्स को हटाने के लिए किया जाता है। यह प्रक्रिया न सिर्फ पेट के निचले हिस्से की अतिरिक्त त्वचा को हटाती है बल्कि साथ ही इसे टोन अप भी करती है। यह एक डे केयर प्रक्रिया है और यह एक सप्ताह तक चलती है। मरीज को कुछ हफ्तों तक खिंचाव पैदा करने वाली गतिविधियों से बचना चाहिए।

लेजर ट्रीटमैंट: पल्स्ड डाई लेजर का इस्तेमाल करने से गर्भावस्था के बाद के स्ट्रैच स्ट्रैच मार्क्स कम हो जाते हैं। ऐसी लेजर ट्रीटमैंट्स सांवली त्वचा वाली महिलाओं के लिए अधिक प्रभावी नहीं हैं। यह प्रक्रिया तब बहुत बढिय़ा काम करती है जब लाल स्ट्रैच स्ट्रैच मार्क्स और त्वचा की पिगमैंट में बहुत बड़ा कंट्रास्ट हो। पुराने स्ट्रैच स्ट्रैच मार्क्स के लिए लेजर बेरंगेपन, आकार तथा गहराई को कम करती है और त्वचा की लचक को 50 से 65 प्रतिशत तक सुधारती है।

स्ट्रैच मार्क्स की देखभाल के टिप्स

1 हमेशा हाईड्रेटिड रहें।

2 स्नान के एकदम बाद ऑलिव, आल्मंड, कैस्टर तथा एवोकाडो ऑयल से शरीर की मालिश करें। एलोवेरा स्ट्रैच स्ट्रैच मार्क्स को समाप्त करने के लिए प्रसिद्ध है।

3 अपनी त्वचा पर अंडे का सफेद हिस्सा लगाएं जो प्रोटीन का भरपूर स्रोत है।

4 गर्भावस्था के दौरान यदि सूर्य की रोशनी में समय बिता रही हों या स्विमिंग करने जा रही हों तो सनस्क्रीन का इस्तेमाल करें।

5 पालक, गाजर, शकरकंद, ब्लूबेरीका, स्ट्राबेरीका, विटामिन ई युक्त खाद्यों, मेवों, एवोकाडो, हरी फूल गोभी तथा साग इत्यादि जैसे एंटी ऑक्सीडैंट्स से भरपूर खाद्यों का सेवन करें क्योंकि इनसे त्वचा को पोषण मिलता है। जो महिलाएं मांसाहारी हैं उनके लिए फिश, अंडे तथा ऑयस्टर्स बढिय़ा विकल्प हैं।

6 स्ट्रैच मार्क्स से बचने के लिए तैलीय खाने की अधिक खपत से बचें। यह एक भ्रांति है कि गर्भस्थ महिला को दो लोगों के बराबर खाना खाना चाहिए। अधिक वजन बढऩे से बचने के लिए प्रोटीन से भरपूर नियमित तौर पर खाना खाएं। वजन बढ़ता है तो स्ट्रैच मार्क्स उभरते हैं।

7 गर्भावस्था के दौरान कसरत करने से त्वचा की लचक बरकरार रहती है। इस प्रकार स्ट्रैच स्ट्रैच मार्क्स कम होते हैं। अपने रक्त प्रवाह को बढिय़ा बनाने के लिए कीजैल एक्साइज करें। आप प्रैगनैंसी योगा का विकल्प भी चुन सकती हैं।

8 स्ट्रैच मार्क्स से खुजली भी हो सकती है परन्तु ऐसा करना नहीं चाहिए। इन पर कैलामाइन ऑयल क्रीम लगाई जानी चाहिए।

सोमवार, 13 जनवरी 2014

ब्लड ग्रुप ए वालों को अधिक होता है गंजापन

एलोपेसिया यानी गंजापन केवल जीन के प्रभाव के कारण ही नहीं होता है बल्कि ब्लड ग्रुप ए के प्रभाव से भी होता है। प्लास्टिक सर्जन डॉ. तेजिंदर भट्टी ने अलग अलग ब्लड ग्रुप्स के ऊपर शोध किया जिसमें पता चला कि ए पॉजीटिव ब्लड ग्रुप के पुरुषों में बाकी ब्लड ग्रुप्स की तुलना में अधिक गंजापन होता है।

डॉ. भट्टी ने बताया कि मरीज पानी, शैंपू की क्वालिटी इत्यादि को गंजेपन का कारण मानते हैं इसके अलावा ब्लड ग्रुप भी उतना ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ए पॉजीटिव ब्लड ग्रुप के लोगों में बी विटामिंस खासतौर पर बायोटिन को ग्रहण(सोखने) की क्षमता कम होती है। जिसके कारण बालों की (मोटाई)थिकनेस कम होती जाती है। एक व्यक्ति के लिए 5 एमजी(mg) बायोटिन रोजाना लेना जरूरी होता है। बायोटिन की ठीक मात्रा शरीर में जाने से बालों की ग्रोथ और बढ़त नार्मल रहती है।

ज्यादातर पुरूष मेल पैट्रन बाल्डनेस के अधिक शिकार होते हैं तो उनमें ए पॉजीटिव ब्लड ग्रुप के पुरुषों में गंजेपन की संभावना अधिक हो जाती है। डॉ. भट्टी ने बताया कि 80 फीसदी केसों में गंजापन करने वाले जीनस मां की ओर से शरीर में आते हैं। अगर आपके नाना या मामा गंजे हैं तो आपके 80 फीसदी गंजे होने के आसार हैं। अद्भुत बात यह है कि मां खुद इस गंजेपन का शिकार नहीं होती है। सिर के आगे के हिस्से में एमपीबी जीनस जड़ों को प्रभावित करते हैं।

रविवार, 12 जनवरी 2014

घरेलू नुस्खों से करें दांतों की रक्षा।

सुंदर, सुडौल और चमकीले दांत एक ओर हमारी सुंदरता को बढ़ाते हैं, वहीं ये हमारे व्यक्तित्व को भी प्रभावशाली बनाते हैं। मानव शरीर का यह अंग हमारे जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। सुंदर दांत वालों की हंसमुख प्रकृति और हंसता चेहरा एक प्रसन्नचित व्यक्ति का प्रमाण है।

मानव काया के सुचारू संचालन के लिए जिस ऊर्जा और शक्ति की हमें आवश्यकता है, वह हम भोजन से प्राप्त करते हैं। भोजन का प्रत्येक कण हमारे शरीर को शक्ति, ऊष्मा और स्फूर्ति प्रदान करता है। पाचन क्रिया का पहला कार्य दांतों से ही प्रारम्भ होता है और भोजन को सुपाच्य बनाने में इसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान होता है।

अत: भोजन को खूब चबाकर खाना चाहिए ताकि जब चबाया हुआ अन्न पेट में जाए तो दांतों का काम आंतों को न करना पड़े। पूर्ण रूप से चबाकर खाने से हमारे मुंह के लार से घुलकर अन्न का दाना बिल्कुल पिस जाता है जो पाचन क्रिया की पहली सुचारू चेष्टा है। इससे हमारी पाचन शक्ति ठीक रहती है और हम भोजन का शत-प्रतिशत लाभ उठाकर स्वस्थ रहते हैं।

कुछ प्रचलित आजमाए हुए सस्ते और सुविधानुसार उपलब्ध होने वाले सामान तथा उपायों को यहां दिया जा रहा है जिनके पालन से दंत रोगों से बचा जा सकता है।

1 मुंह से दुर्गंध आने पर आम का दातुन नियमित करना चाहिए। कुछ दिन के प्रयोग से मुंह से दुर्गंध आनी समाप्त हो जाएगी।

2 नौसादर, सोंठ, हल्दी और नमक को महीन पीस कर कपड़े में छान लें। फिर सरसों के तेल में मिला कर मंजन करें। इससे पायरिया रोग का भी नाश हो जाएगा और मुंह की सारी दुर्गंध मिट जाएगी।

3 सरसों के तेल में नमक और नींबू का रस मिला कर मंजन करने से भी दांतों को लाभ होता है।

4 मौलसरी के फल या बीज अथवा उसकी छाल का काढ़ा दंत रोगों का नाश करता है।

5 नौसादर और सोंठ को बराबर भाग में लेकर बारीक पीस लें और इसे मंजन की तरह प्रयोग करें। दांत साफ भी रहेंगे और दांतों के दर्द से छुटकारा भी मिलेगा।

6 बादाम के छिलके को आग में जला कर खरल में कूट लें और साफ कपड़े से छान लें। महीन छना हुआ नमक इसमें मिला कर मंजन की तरह रोज प्रयोग करें।

7 पालक का साग पूरे मौसम में खूब खाएं। यह दांतों के लिए बड़ा लाभकारी है।

8.तिल के तेल से दांतों को रगडऩे पर लाभ होता है।

9.मकई के पत्तों को पानी में उबालें और पानी को छान लें। पानी थोड़ा गर्म रहे तो कुल्ला करने पर दांतों को बहुत लाभ होता है।

10 ‘आमचूर’ को खूब महीन पीस कर हल्का गर्म कर मुंह में लगा कर कुल्ला करें। मसूढ़ों का दर्द, सूजन आदि तुरंत दूर होगी।

11 आम की लकड़ी जलाकर मंजन बना लें। इससे मुंह धोने से भी दांतों को लाभ होता है।

12 फिटकरी के पानी से कुल्ला करना भी दांतों के लिए लाभदायक है।

13 लौंग का तेल रूई के फाहे में भिगो कर दांतों पर लगाने से दांतों का दर्द तुरंत दूर हो जाता है।

14 सोया का रस पानी में मिला कर कुल्ला करने से दांत मजबूत और साफ होते हैं।

15 चमेली फूल की पत्ती चबाने से भी दांतों के दर्द में राहत मिलती है।

16 अनार की पत्तियों को सुखा कर चूर्ण बना लें और फिर इसे मंजन की तरह प्रयोग करने से दांत से खून बहना बंद हो जाता है।

17 अमरूद और नीम की कोमल पत्तियों को चबाने से भी दांतों को लाभ होता है।

18 नींबू का रस दांतों के लिए सदा लाभकारी है।

19 टमाटर का रस भी दांतों को स्वस्थ बनाए रखने में सहायक होता है।

20 तुलसी के पांच अंगों (जड़, पत्ते, डंठल, फल और बीज) को लेकर पानी में उबालें। जब आधा पानी रह जाए तो उस काढ़े के गुनगुना रहने पर कुल्ला करें। इससे दांत के कीड़े मर जाएंगे और मसूढ़े का दर्द समाप्त हो जाएगा।

21 तुलसी के पत्ते, लौंग और कपूर मिला कर पीस लें। फिर इसकी छोटी-छोटी गोलियां बना लें। इन गोलियों को दांत के नीचे दबा कर रखने से दांतों का दर्द दूर होता है और मुंह से दुर्गंध का नाश होता है।

22 तुलसी की पत्ती और काली मिर्च पीस कर छोटी गोलियां बना लें। यदि दांतों में दर्द हो तो उस दांत के नीचे गोलियों को दबाने से दांत का दर्द दूर हो जाता है।

23 दांतों की बीमारियों में बबूल बड़ा लाभदायक है। बबूल की लकड़ी को जलाकर कोयला बना लें। इसे महीन पीस कर कपड़े से छान लें। इसे दांतों पर खूब अच्छी तरह मलें और आधे घंटे तक कुल्ला न करें। दांतों का दर्द, दांत का हिलना, दांतों में से खून आना, मसूढ़ों का फूलना सब दूर हो जाता है।

24 सेंधा नमक आग में जला कर बारीक पीस लें और छान कर मंजन की तरह दांतों पर सुबह-शाम मलें। दांतों का दर्द और कीड़े आदि नष्ट होकर दांत मजबूत हो जाते हैं।

25 प्रतिदिन दांतों पर शहद मल कर ताजे पानी से कुल्ला करें। दांत साफ और चमकीले हो जाएंगे तथा दांतों का दर्द, मसूढ़ों की सूजन और दांतों से खून का बहना आदि बंद हो जाएगा।

26 रीठे के बीजों को जला कर चूर्ण बना लें और फिटकरी भून कर बारीक पीस लें, दोनों को मिला कर मंजन की तरह दांतों पर लगाएं। इससे हिलते दांत मजबूत हो जाएंगे तथा दांत का दर्द दूर हो जाएगा।

27 तुलसी की पत्ती सुबह-शाम चबाने से मुंह की दुर्गंध दूर होती है।

28 सौंफ और लौंग को मुंह में लेकर देर तक चबाते और चूसते रहें। इससे भी मुंह की दुर्गंध मिट जाती है।

29 फिटकरी को महीन पीस कर शहद के साथ मिला कर यदि दांतों पर मलें तो दांतों का गिरना रुक जाता है और वे मजबूत हो जाते हैं।

30 जूही फूल को पानी में उबाल कर काढ़ा बना कर कुल्ला करने से दांत की परेशानियां दूर होती हैं।

31 खाने का सोडा और हल्दी मिला कर दिन में तीन बार मंजन करने से हिलते दांत मजबूत हो जाते हैं।

32 पिपली, सेंधा नमक और जीरा प्रत्येक 20-20 ग्राम लेकर बारीक पीस कर मंजन बना लें। मंजन से सुबह-शाम दांत साफ करने से दांतों का हिलना बंद होता है।

33 जामुन की पत्तियों को चबाने से भी हिलते दांतों में फायदा होता है।

34 मुलेठी का दातुन करने से भी दांत रोग में लाभ होता है।

35 भुनी हुई लौंग चबाने से भी हिलते दांत की जड़ मजबूत होती है।

36 गन्ना चूसने से दांत मजबूत होते हैं तथा हिलते दांतों को नवजीवन मिलता है।

37 मौसम के अनुसार फलों का रस पीने से दांत निरोग रहते हैं।

हरी सब्जियों के सेवन से दांत व मसूढ़े मजबूत रहते हैं।

38 सुपारी व गुटखे का प्रयोग भूल कर भी न करें।

शुक्रवार, 10 जनवरी 2014

अनार में सेहत का राज

एक अनार सौ बीमार वाली कहावत आपने सुनी ही होगी। मीठा अनार तीनों दोषों का शमन करने वाला, तृप्तिकारक, वीर्यवर्धक, हल्का, कसैले रसवाला, बुद्धि तथा बलदायक एवं प्यास, जलन, ज्वर, हृदयरोग, कण्ठरोग, मुख की दुर्गन्ध तथा कमजोरी को दूर करने वाला है।

खटमिट्ठा अनार अग्निवर्धक, रूचिकारक, थोड़ासा पित्तकारक व हल्का होता है। पेट के कीड़ों का नाश करने व हृदय को बल देने के लिए अनार बहुत उपयोगी है। इसका रस पित्तशामक है। इससे उल्टी बंद होती है। अनार पित्तप्रकोप, अरूचि, अतिसार, पेचिश, खांसी, नेत्रदाह, छाती का दाह व व्याकुलता दूर करता है।

सिर दर्द: गर्मियों में सिरदर्द हो, लू लग जाये, आँखें लाल-लाल हो जायें तब अनार का शरबत गुणकारी सिद्ध होता है। इसका रस स्वरयंत्र, फेफड़ों, हृदय, यकृत, आमाशय तथा आँतों के रोगों में लाभप्रद है। अनार खाने से शरीर में एक विशेष प्रकार की चेतना सी आती है।

पित्तरोग: ताजे अनार के दानों का रस निकालकर उसमें मिश्री डालकर पीने से हर प्रकार का पित्तरोग शांत होता है।

अरुचि रोग: अनार के रस में सेंधा नमक व शहद मिलाकर लेने से अरूचि मिटती है।

खाँसी: अनार की सूखी छाल आधा तोला बारीक कूटकर, छानकर उसमें थोड़ा सा कपूर मिलायें। यह चूर्ण दिन में दो बार पानी के साथ मिलाकर पीने से भयंकर कष्टदायक खांसी मिटती है।

अर्श या बवासीर: अनार के छिलके का चूर्ण नागकेशर के साथ मिलाकर देने से अर्श (बवासीर) का रक्तस्राव बंद होता है।

पेट के कीड़ें: अनार का रस शरीर में शक्ति, स्फूर्ति तथा स्निग्धता लाता है। बच्चों के पेट में कीड़े हों तो उन्हें नियमित रूप से सुबह-शाम 2-3 चम्मच अनार का रस पिलाने से कीड़े नष्ट हो जाते हैं। अनार का छिलका मुँह में डालकर चूसने से खाँसी में लाभ होता है।

बुधवार, 8 जनवरी 2014

सर्दियों में थकान का ज्यादा होना

थकान के लक्षण आप ऊर्जा की कमी महसूस करते हैं। अक्सर आलस और उत्साह की कमी पाते हैं। हमेशा उनींदा महसूस करते हैं। आपकी ध्यान केंद्रित करने की क्षमता कम हो जाती है। निर्णय लेने में कठिनाई होती है। कई बार अवसादग्रस्त महसूस करते हैं।

आयरन की कमी बढ़ाती है थकान : थकान का सबसे सामान्य चिकित्सकीय कारण है आयरन की कमी यानी एनीमिया। यह 20 में से एक पुरुष और मेनोपॉज के स्तर को पहुंच चुकी महिलाओं में होता है, लेकिन यह समस्या उन महिलाओं में 25-30 प्रतिशत होती है, जिन्हें पीरियड्स होते हैं। गर्भवती महिलाएं भी आमतौर पर एनीमिया से पीडित होती हैं। अगर महिलाएं प्रतिदिन 18 मिलीग्राम और पुरुष 8 मिलीग्राम से कम आयरन ले रहे हैं तो उनके शरीर को ठीक तरह से काम करने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा। मांस और हरी पत्तेदार सब्जियां आयरन के अच्छे स्त्रोत हैं। आयरन हीमोग्लोबीन के निर्माण के लिए जरूरी है। हीमोग्लोबिन का स्तर सीधे तौर पर हमारी ऊर्जा के स्तर को प्रभावित करता है, क्योंकि इसकी कमी से अंगों को आॅक्सीजन कम मिलती है। पुरुषों के लिए हीमोग्लोबिन का स्तर 14-18 ग्राम/डीएल और महिलाओं में इसकी मात्रा 12-16ग्राम/डीएल होनी चाहिए। कितने कारगर हैं

सप्लीमेंट्स : कई लोग थकान महसूस होने पर एनर्जी ड्रिंक का सहारा लेते हैं, लेकिन एनर्जी ड्रिंक शुगर और कैफीन से भरपूर होते हैं। ये कुछ समय के लिए तो ऊर्जा दे देते हैं, लेकिन यह आपके लिए कई समस्याएं भी पैदा कर सकते हैं। ज्यादा कैफीन के सेवन से ब्लड प्रेशर हाई हो सकता है, जबकि शुगर वजन बढ़ाने का काम करती है। मल्टीविटामिन की गोलियां बिना डॉक्टर की सलाह के न लें।

क्यों होती है थकान : सर्दियों में दिन छोटे और रातें बड़ी हो जाती हैं और आपके जागने और सोने का चक्र गड़बड़ा जाता है, जिससे थकान होती है। सर्दियों में सूरज की रोशनी कम होने का अर्थ है कि आपका मस्तिष्क ज्यादा मात्रा में मेलैटोनिन हार्मोन बना रहा है, जो आपको उनींदा बनाता है, क्योंकि इस स्लीप हार्मोन का सीधा संबंध रोशनी और अंधेरे से होता है। सर्दियों में जब सूरज जल्दी छिप जाता है तो हमारा मस्तिष्क मेलैटोनिन बनाने लगता है, जिससे सांझ ढलते ही हमारा सोने का मन करता है और हम जल्दी बिस्तर में जाना चाहते हैं। सर्दियों में हमारी शारीरिक सक्रियता भी थोड़ी कम हो जाती है। हम थका-थका सा महसूस करते हैं। कभी-कभी यह थकावट और आलस गंभीर विंटर डिप्रेशन का संकेत भी हो सकती है। इसे डॉक्टरी भाषा में सीजनल अफेक्टिव डिसआर्डर कहते हैं। हर पंद्रह में से 1 व्यक्ति विंटर डिप्रेशन का शिकार होता है। यही वजह है कि सर्दियों में आत्महत्या के मामले बाकी मौसमों के मुकाबले बढ़ जाते हैं। इसी कारण इसे आत्महत्याओं का मौसम भी कहा जाता है। इससे बचने के लिए जितना ज्यादा से ज्यादा हो सके, प्राकृतिक प्रकाश में रहे। विटामिन डी की कमी से भी थकावट होती है। सर्दियों में अपने भोजन में सोया उत्पादों, दुग्ध उत्पादों, अंडे, मांस और चिकन की मात्रा बढ़ा दें।

मंगलवार, 7 जनवरी 2014

कुछ सामान्य लक्षणों से जाने कैंसर का संकेत

कुछ ऐसे सामान्य लक्षण हो सकते हैं जिन्हें आप रोजमर्रा की थकान समझ कर छोड़ सकती हैं। यदि आप भी इनमें से कोई लक्षण निरंतर तौर पर खुद में देखती हैं तो जांच अवश्य करवाएं...

बहुत अधिक वजन घटना

यदि डाइटिंग करने या कसरत के कारण आपका वजन कम हो रहा है तो यह ठीक बात नहीं है परंतु यदि आप जीवन शैली संबंधी आदतों में कोई परिवर्तन देखे बिना अपना वजन घटता हुआ देख रही हैं तो यह कई प्रकार के कैंसर से जुड़ा हो सकता है जिनमें पैंक्रियास या पेट का कैंसर शामिल हैं।

बुखार

लगातार बना रहने वाला बुखार लिम्फोमा या ल्यूकीमिया जैसे ब्लड कैंसर का प्रारंभिक संकेत हो सकता है। यदि आपको लगातार बुखार रहता है तो आपको डाक्टर से अवश्य मिलना चाहिए। यहां तक कि यदि यह कैंसर नहीं है तो भी गंभीरता से इसका उपचार होना चाहिए।

दर्द

हालांकि दर्द के कई कारण हो सकते हैं परंतु लगातार रहने वाले सिरदर्द दिमाग के कैंसर के प्रारंभिक संकेत हो सकते हैं। साथ ही कमर दर्द, रैक्टल या ओवेरियन कैंसर का संकेत हो सकता है। यदि आपको लगातार दर्द रहता हो तो अपने डाक्टर से सलाह अवश्य लें।

खांसी

यदि आप को खांसी रहती है जो जाती नहीं है तो यह फेफड़ों के या श्वास नली के कैंसर का संकेत हो सकती है। हो सकता है कि यह मौसम से संबंधित एलर्जी हो फिर भी सुनिश्चित करने के लिए जांच जरूरी है।

शरीर में मांस की गांठें

यदि आपकी त्वचा में मांस की गांठें हैं तो डर्मैटोलॉजिस्टस से संपर्क करें। यदि ये गांठें आपके वक्ष, अंडकोष या लिम्फ नोड्स के नजदीक हैं तो विशेष ध्यान दें। बांहों, टांगों या शरीर के अन्य हिस्सों में यदि गांठें दिखें तो डरें नहीं। ये नुक्सानरहित सिबेशियस सिस्ट्स हो सकती हैं।

असामान्य रक्तस्राव

असामान्य रक्तस्राव कई प्रकार के कैंसर का संकेत हो सकता है। खांसते वक्त खून आने का मतलब है फेफड़ों का कैंसर, मल में खून आने का अर्थ है कोलन या रैक्टर कैंसर, पेशाब में खून आने का अर्थ है ब्लैडर कैंसर तथा योनि में से लगातार रक्तस्राव का संबंध सर्वाइकल कैंसर से हो सकता है। यदि आपके निप्पल से खून निकलता हो तो यह छाती का कैंसर है।

थकान

लगातार रहने वाली थकान जो आराम करने से भी दूर न होती हो वह भी कैंसर का एक संकेत हो सकती है।

सोमवार, 6 जनवरी 2014

हाथों की त्वचा का रंग भी सेहत के बारे में कुछ बताता है


हैल्थ और पर्सनैलिटी का आईना होते हैं हाथ, इनमें हुनर
ही नहीं, स्वास्थ्य के भी राज हैं। पहले वैद्य एवं हकीम
रोगी की आंखों, हाथ, नाखून और त्वचा की रंगत और शरीर के
तापमान से ही रोग का पता लगा लेते थे, आज भले ही नई
तकनीकें इस क्षेत्र में आ गई हैं परंतु पुरानी तकनीक से हम
रोग की दस्तक को पहले ही पहचान कर उसका उपचार
करा सकते हैं।
आप भी अपने ही नहीं बल्कि दूसरों के हाथों पर भी नजर रख
उनके स्वास्थ्य के बारे में काफी हद तक जान सकती हैं
ताकि समय रहते आप उसका उपचार भी ढूंढ सकें।
हालांकि किसी भी रोग की सही जानकारी के लिए आज कई
प्रकार के टैस्ट कराए जाते हैं पर वे निशानियां आज
भी नहीं बदलीं और स्वास्थ्य में होने वाले बदलावों को सहज
ही बता जाती हैं।

नाखून

 
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