शनिवार, 14 दिसंबर 2013

जोड़ों के दर्द से राहत पाने के लिए धूप जरूरी

गठिया के रोगियों के लिए सावधान होने का समय आ गया है। सर्दियों की शुरुआत से ही खान-पान से लेकर शारीरिक सक्रियता का ध्यान रखना दर्द में राहत देगा।
खान-पान नियंत्रित करें
सबसे पहले तो सर्दियों में खान-पान पर विशेष ध्यान देना होगा। ज्यादा खाने-पिने की आदतों को नियंत्रित करना होगा। यदि किसी व्यक्ति को गठिया है और वह ज्यादा खाए तो उसका वजन और बढ़ सकता है।वजन से पैरों पर और जोर बढ़ेगा तो दर्द और बढ़ेगा,इसलिए वजन कम करने पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। खाने में वे चीजें कम लें,जो वजन बढ़ाने वाली होती हैं। मद्यपान एवं धूम्रपान से परहेज करना चाहिए।
शारीरिक गतिविधियां जरी रखें
औषधियों के साथ-साथ जोड़ों के व्यायाम,शारीरिक क्रियाशीलता,मांसपेशियों के व्यायाम या फिजियोथेरेपी गठिया के उपचार में भूमिका निभाते हैं। यह दर्द और जकड़न को कम करने में सहायक सिद्ध होते हैं।व्यायाम से जोड़ों में लचीलापन,गतिशीलता एवं मांसपेशियों को शक्ति मिलती है। तीन प्रकार के व्यायाम करने चाहिए। ● गतिशीलता को बढ़ाने वाले व्यायाम,जिनमें जोड़ों की सामान्य स्थिति बनी रहे एवं उनमें जड़ता उत्पन्न न हो पाए। ● मांसपेशियों को शक्ति प्रदान करने वाले व्यायाम। ● एरोबिक व्यायाम,जिनसे दिल में रक्त संचालन तेज हो और वजन भी नियंत्रित रहे।वजन जितना कम होगा,रोग उतनी जल्दी ठीक होगा।
धूप सेकें
सर्दियों में एक तो धूप कम आती है,दूसरे लोग बाहर भी कम निकलते हैं। गठिया से ग्रसित और इससे बचने के लिए लोगों को ज्यादा से ज्यादा धूप सेंकनी चाहिए।धूप से विटामिन-डी मिलता है,जिसकी कमी से प्रतिरोधक तंत्र कमजोर होने लगता है।विटामिन-डी हड्डियों के लिए खुराक का कार्य करता है।
सकारात्मक सोच रखें
कई बार सर्दियों में लोग उदास रहने लगते हैं। रोगियों की तकलीफ बढ़ने लगती है तो वे निराश व नकारात्मक हो जाते हैं। मौसम से उत्पन्न उदासी से बचने के लिए परिजनों के साथ समय बिताएं और विश्राम एवं श्रम में संतुलन बनाएं।

शनिवार, 10 अगस्त 2013

दिल के लिए गाएं

आप बेशक बेसुरा गाते हों,फिर भी गाएं। खासकर दोस्तों के साथ मिलकर गाना जरुरी है क्योंकि गाने और गुनगुनाने का सीधा संबंध आपके दिल की धडकनों से है।

स्वीडेन के डॉक्टर्स की एक रिसर्च बताती है कि गाने का सेहत के साथ गहरा रिश्ता है। इस रिसर्च टीम में वैज्ञानिक और संगीतकार दोनों ही शामिल थे। इससे यह पता चला कि सिंगर्स के सांस लेने की क्रिया और दिल की धडकन में किस तरह का संयोजन होता है। सांस लेने की क्रिया से दिल धडकनों और ब्लड प्रेशर पर खासा असर पड़ता है,इस तथ्य से हम अनजान नहीं हैं। इसीलिए प्राणायाम जैसे ब्रीदिंग एक्सरसाइज़ चलन में आए।

लेकिन दूसरे अध्ययन से यह बात सामने आई कि ब्रीदिंग रेट और हार्ट रेट के बदलाव एक-दुसरे से जुड़े हुए हैं। इतना ही नहीं,वहां 'रेस्परेट' नाम की एक मशीन भी बनाई गई है,जो स्लो ब्रीदिंग के तरीके बताती है। स्लो ब्रीदिंग के मायने प्रति मिनट दस बार से भी कम सांस लेना है। हाई ब्लडप्रेशर का उपचार करने के लिए भी यह प्रकिया फायदेमंद बताई गई है।

अब बात सिंगिंग की है तो इसका परिणाम देखने के लिए स्वीडेन में एक सिंगिंग सेसन के बाद हार्ट रेट में होने वाले बदलाव को नोटिस किया गया। यह भी देखा गया कि गाने के बाद ओक्सीटोसिन का लेवल बढ़ जाता है, जिससे अच्छी सेहत को बढ़ावा मिलता है।

इसकी वजह यह है कि 'रेगुलेटेड ब्रीदिंग' गाने की जरूरत है। ब्रीदिंग और हार्ट रेट ऑटोनोमस नर्वस सिस्टम से जुड़े होते हैं। हालांकि, अकेले गाने की तुलना में ग्रुप में गाने के फायदे ज्यादा हैं।

शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013

दमा रोग को बेकाबू न होने दें

दमा यानि ब्रोंकिअल अस्थमा एक तकलीफ़ देह श्वांस रोग है,जो किसी भी उम्र,लिंग और आर्थिक वर्ग के व्यक्ति को हो सकता है।यह एक व्यापक रोग है और इसके कई रूप हैं। पर मूलत: या इसमें सांस की नलियाँ बार-बार कुछ समय के लिए सिकुड़ जाती हैं।तब बीमार को सांस लेते और छोड़ते समय तकलीफ़ होती है, छाती में सांय-सांय होती है, भीतर बलगम जमा हुआ मालूम होता और दम फूलने लगता है।दवाओं और आराम करने से प्राय: राहत तो मिल जाती है, लेकिन रोग कभी भी फिर से हो जाता है।

अभी हाल में न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में इसी रोग के बावत एक जापानी अध्ययन की रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। इसके मुताबिक बीमारी के लक्षण रोग की गम्भीरता का पूरा पता नहीं देते और इसलिये मरीज इस भुलावे में रह जाता है कि उसका रोग नियन्त्रण में है, जबकि भीतर श्वांस प्रक्रिया में आये व्यवधान के फलस्वरूप शरीर की पूरी जैव-रसायनिकी अस्त-व्यस्त हो जाती है। शरीर में ऑक्सीजन की कमी हो जाने पर भी उसके स्पष्ट लक्षण नहीं दिखाई देते।

इसलिए अध्ययनकर्ताओं का यह मानना है कि स्थिति का आंकलन रोगी की रक्त जांच से ही किया जा सकता है। जांच करके यह पता लगाया जा सकता है कि रक्त में ऑक्सीजन और कार्बन-डाई-ऑक्साइड किस मात्रा में है और रक्त की पी.एच.ठीक तो है। गंभीर वर्ग के रोगियों के लिये यह जानकारी काफी महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकती है।

यों तो रोग पर नजर रखने के लिए रोगी अपने डॉक्टर की सलाह से 'पीक एक्सपीरेटरी फ्लो रेट'मापने वाला साधारण सा उपकरण भी प्रयोग कर सकते हैं। सांस छोड़ते समय कोई कितनी ज्यादा हवा बिना अड़चन के बाहर छोड़ सकता है इसका आंकलन इस छोटे से उपकरण द्वारा घर पर ही संभव है। इससे यह पता रहता है कि रोग कितना काबू में है। गौरतलब बात यह है कि दमा रोग में ज्यादा तकलीफ सांस बाहर छोड़ते समय ही होती है।

गुरुवार, 28 जून 2012

कंप्यूटर से आंखोँ का बचाव

आज के हाईटेक जमाने मेँ कंप्यूटर के बिना काम करने की कल्पना भी नहीँ की जा सकती है। जब हर रोज सात-आठ घंटे कंप्यूटर पर काम करना हो तो आंखोँ पर इसका प्रभाव तो पड़ता ही है। कंप्यूटर से होने वाली इन तकलीफोँ को कंप्यूटर विजन सिँड्रोम का नाम दिया गया है। समय रहते इसके लक्षणोँ को समझकर बचाव के लिए उपाय भी किये जा सकते हैँ।

कंप्यूटर विजन सिंड्रोम के लक्षण

1. आंख और सिर मेँ भारीपन।
2. धुंधला दिखना।
3. आंख मेँ जलन या खुजली।
4. आंखोँ का सूखा रहना।
5. पास का देखने मेँ दिक्कत।
6. रंगोँ को पहचानने मेँ मुश्किल।
7. आंखोँ के अलावा गर्दन, कमर और कंधोँ मेँ दर्द होना।
ये सभी कंप्यूटर विजन के लक्षण हैँ।

आंखोँ मेँ तकलीफ के डर से कंप्यूटर को तो नहीँ छोड़ा जा सकता है, क्योँ ना कुछ बुरी आदतोँ को छोड़ दिया जाए और फायदे वाले टिप्स आजमा लेँ।

इन उपायोँ से बचायेँ आंखेँ

1. कंप्यूटर पर काम करते समय आंख की पलकोँ को थोड़ी-थोड़ी देर बाद झपकाते रहना चाहिए। सामान्य अवस्था मेँ व्यक्ति एक मिनट मेँ 20 से 22 बार पलकोँ को झपकाता है। कंप्यूटर पर काम करते समय लोग एक मिनट मेँ सिर्फ 7 से 8 बार ही पलकोँ को झपका पातेँ हैँ। पलकोँ को जल्दी-जल्दी झपकाने से पलकेँ आंख की पुतली (कोर्निया और कन्जंक्टाइवा) के ऊपर आंसू फैलाने का काम करती हैँ और आंख को सूखा होने से बचाती हैँ।

2. कंप्यूटर पर काम करते समय कंप्यूटर वाले चश्मेँ का इस्तेमाल करेँ तो ज्यादा बेहतर होगा। इस तरह के चश्मेँ मेँ ट्राइपोकल लेंस और प्रोगेसिव लेँस के मुकाबले बीच के देखनेँ का क्षेत्र बड़ा होता है।

3. कंप्यूटर खिड़की के सामने नहीँ होना चाहिए। स्क्रीन की रोशनी और कमरे की रोशनी की मात्रा बराबर होनी चाहिए।

4. कंप्यूटर स्क्रीन आंख के स्तर से 15 डिग्री नीचे की तरफ होनी चाहिए। स्क्रीन और आंख के बीच लगभग 25 इंच की दूरी होनी चाहिए।
5. कंप्यूटर पर काम करते समय हर आधा घंटे बाद 15-20 सेकैँड के लिए किसी दूर की वस्तु को देखना चाहिए। अच्छा होगा कि हर घंटे एक छोटा ब्रेक लिया जाए।

6. दूध, हरी सब्जी, मौसमी फलोँ का प्रचूर मात्रा मेँ सेवन भी बचाव का एक उपाय है।

बुधवार, 11 जनवरी 2012

फैटी लिवर(जिगर)


बीमारी का स्वरूप

जैसा कि मर्ज के नाम से ही स्पष्ट है कि इस मर्ज मेँ वसा का एक खास प्रकार ट्राईग्लिसराइड्स का स्तर लिवर(जिगर) मेँ बढ़ जाता है। वसा का यह बढ़ा हुआ स्तर आंशिक तौर पर लिवर के स्वस्थ ऊतकोँ(टिश्यूज) को बदल देता है। इस स्थिति मेँ लिवर का आकार थोड़ा बढ़ जाता है और यह कुछ भारी भी हो जाता है और यह पीलापन लिए दिखता है। इस मर्ज की शिकायत गर्भावस्था के कारण, अत्यधिक मात्रा मेँ शराब का सेवन या फिर एल्कोहलिक सिरोसिस नामक मर्ज के कारण संभव है।

एक शोध के द्वारा यह निष्कर्ष निकला है कि हाईग्लाईसीमिक फूड्स के अंतर्गत व्हाइट ब्रेड, चावल, शुगर और ब्रेकफास्ट मेँ प्रयोग किए जाने वाले 'रेडी टू ईट सीरियल्स' जैसे फास्ट फूड्स मैगी, बर्गर आदि को शामिल किया जा सकता है। ये खाए जाने वाले पदार्थ शरीर मेँ ब्लड शुगर के स्तर को तेजी से बढ़ाते हैँ। इस कारण कालांतर मेँ फैटी लिवर की शिकायत संभव है।
वहीँ लो ग्लाईसीमिक भोज्य पदार्थ जैसे फल, सब्जियां, बीन्स, फलियां और साबुत अनाज आदि ब्लड शुगर के स्तर को धीरे-धीरे कम करते हैँ। फैटी लिवर मेँ लो ग्लाईसीमिक आहार ग्रहण करेँ।

कारगर सुझाव

* फाइबर युक्त भोज्य पदार्थोँ को आहार मेँ स्थान देँ। फलोँ, सब्जियोँ, बीन्स और साबुत अनाजोँ मेँ फाइबर पर्याप्त मात्रा मेँ पाया जाता है।
* सब्जियोँ के ताजा रस मेँ एंटीऑक्सीडेँट्स पर्याप्त मात्रा मेँ पाये जाते हैँ। स्वच्छता से तैयार किय गए जूस लिवर के लिए किसी टॉनिक से कम नहीँ हैँ।
* आपके आहार मेँ हरे रंग के भोज्य पदार्थ कि प्रचुरता होना लिवर की सेहत के लिए अच्छा है।
* घी के स्थान पर स्वास्थ्यकर तेलोँ जैसे जैतून , कैनोला, राइस ब्रान(चावल की भूसी से निकला) तेल का प्रयोग करेँ।
* यह बात सुनिश्चित करेँ कि आप विभिन्न भोज्य पदार्थोँ से जितनी कैलोरी ग्रहण करते हैँ, उसमेँ 30 फीसदी भाग से अधिक वसा न हो। इस क्रम मेँ डाइटीशियन की मदद लेँ।
*प्रोसेस्ड फूड्स की तुलना मेँ जहाँ तक संभव हो, आर्गेनिक(कार्बनिक) भोज्य पदार्थोँ को ही ग्रहण करेँ। ऐसा इसलिए क्योँकि आर्गेनिक भोज्य पदार्थोँ मेँ ही कहीँ अधिक पोषक तत्व पाये जाते हैँ, क्योँकि इनकी खेती मेँ रासायनिक खादोँ का प्रयोग नहीँ होता। आर्गेनिक भोज्य पदार्थ लिवर की सेहत के लिए अच्छे माने जाते हैँ। वहीँ प्रोसेस्ड फूड्स को सुरक्षित बनाए रखने के लिए विभिन्न केमिकल्स और परिरक्षकोँ(प्रीजर्वेँटिव्स) का प्रयोग किया जाता है। इसलिए प्रोसेस्ड फूड्स को पचाने मेँ जिगर पर काफी जोर पड़ता है।

शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

दिल के मरीजोँ के लिए लहसुन का तेल फायदेमंद


एक शोध के अनुसार लहसुन का तेल हार्ट पेशेँट के लिए बेहद फायदेमंद है। खास तौर पर हार्ट अटैक के बाद पेशेँट को ठीक रखने के लिए।
लहसुन के तेल मेँ मौजूद डायलिल ट्राइ सल्फाइड नामक पदार्थ कार्डियक सर्जरी के दौरान हार्ट को मजबूती देता है। शोध के अनुसार डायलिल ट्राई सल्फाइड नामक पदार्थ हाइड्रोजन सल्फाइड के विकल्प के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है।

रविवार, 6 नवंबर 2011

सियाटिका के दर्द को देँ ऐसे शिकस्त


सियाटिका नर्व (नाड़ी) शरीर की सबसे लंबी नर्व होती है। यह नर्व कमर की हड्डी से गुजरकर जांघ के पिछले भाग से होती हुई पैरोँ के पिछले हिस्से मेँ जाती है। जब दर्द इसके रास्ते से होकर गुजरता है, तब ही यह सियाटिका का दर्द कहलाता है। होलिस्टिक मेडिसिन के तहत इस मर्ज का स्थायी समाधान संभव है।


लक्षण


* कमर के निचले हिस्से मेँ दर्द के साथ जाँघ व टांग के पिछले हिस्से मेँ दर्द।

* पैरोँ मेँ सुन्नपन के साथ मांसपेशियोँ मेँ कमजोरी का अनुभव।

* पंजोँ मेँ सुन्नपन व झनझनाहट।

बचाव

* प्रतिदिन सामान्य व्यायाम करेँ।

* वजन नियंत्रण मेँ रखेँ।

* पौष्टिक आहार ग्रहण करेँ।

* रीढ़ की हड्डी को चलने-फिरने और उठते-बैठते समय सीधा रखेँ।

* भारी वजन न उठाएं।

होलिस्टिक समाधान

सामान्य रूप से यदि मरीज की उम्र बहुत अधिक नहीँ है, तो इस बीमारी को ठीक करना आसान होता है। मर्ज के शुरूआती दौर मेँ गर्म पैक, आराम और दर्दनाशक गोली का सेवन उपयोगी है।

डीप हीट थेरैपी

बीमारी पुरानी होने पर यह थेरैपी लाभप्रद है। इसके तहत गर्म पानी के प्रयोग से या अरंडी के तेल का गर्म पैक लगाने से मांसपेशियां शिथिल होती हैँ।

काइरोप्रैक्टिक चिकित्सा

मांसपेशियोँ के शिथिल होने पर व्यायाम करना जरूरी होता है। इससे विभिन्न स्थितियोँ मेँ मरीज का शरीर सुचारू रूप से गति करता है। इस प्रक्रिया से नर्व पर दबाव समाप्त हो जाता है और धीरे-धीरे दर्द जाता रहता है।

रीढ़ की कसरत

नर्व पर दबाव समाप्त होने पर रीढ़ की हड्डी के व्यायाम मांसपेशियोँ को मजबूत बनाते हैँ। इससे बीमारी के पुनः होने की संभावना समाप्त हो जाती है।

पोषक तत्व

आहार मेँ विटामिन सी, ई, बीटा कैरोटिन (हरी सब्जियोँ व फलोँ मेँ) और कैल्शियम का सेवन उपयोगी है। कैल्शियम दूध मेँ पर्याप्त मात्रा मेँ पाया जाता है। इसी तरह कान्ड्राइटिन सल्फेट व ग्लूकोसामीन (इन पोषक तत्वोँ की गोलियाँ दवा की दुकानोँ पर उपलब्ध हैँ) का सेवन भी लाभप्रद है। वहीँ आइसोफ्लेवान (सोयाबीन मेँ मिलता है) और विटामिन बी12 (बन्दगोभी व ऐलोवेरा मेँ) आदि का पर्याप्त मात्रा मेँ प्रयोग करने से ऊतकोँ (टिश्यूज) का पुःन निर्माण होता है।

परिणाम

मरीज की उम्र यदि बहुत अधिक नहीँ है और उसकी डिस्क कई हिस्सोँ मेँ टूटी नहीँ है, तो उपर्युक्त चिकित्सा औसतन 2 से 3 महिने मेँ आश्चर्यजनक परिणाम देती है।

शनिवार, 8 अक्टूबर 2011

तिमाही गर्भ निरोधक इंजैक्शन


प्रo तिमाही गर्भनिरोधक
इंजैक्शन क्या है?
उo तिमाही गर्भ निरोधक
इंजैक्शन अनचाहे गर्भ को
रोकने का एक उपाय है। यह
अनचाहे गर्भ को रोकने की
इच्छुक महिलाओँ के लिए
एक सरल और सुरक्षित
उपाय है। यह 99.796
प्रतिशत प्रभावशाली है।

प्रo यह सूई कहाँ लगाई
जाती है?
उo यह महिला के बांह या
कूल्हे मेँ लगाई जाती है।

प्रo यह गर्भ निरोधक
इंजैक्शन कब लगवाया जा
सकता है?
उo पहली सूई के बाद हर3
महिने मेँ एक सूई लगवाएं।
यह इंजैक्शन हर 3 महिने
मेँ लगवाना बहुत जरूरी है,
पर यदि किसी कारण से
इसे निर्धारित तारीख पर न
लगपा पाएं तो उस तारीख
से 2 हफ्ते पहले या 2 हफ्ते
बाद भी लगवा सकती हैँ।
यदि 2 हफ्ते से ज्यादा देर
हो जाए तो अगली सूई
लगवाने तक या तो यौन
संबंध न बनाएं अथवा यौन
संबंध मेँ सुरक्षित गर्भ
निरोधक अपनाएं।

प्रo महिलाओँ को कब
इसकी शुरूआत करनी
चाहिए?
उo जब आपको पक्का
यकीन हो कि आप गर्भवती
नहीँ हैँ। आमतौर पर
मासिक चक्र शुरू होने के
बाद अगले 7दिनोँ मेँ इसकी
शुरूआत की जा सकती है।
गर्भपात करवाने के या गर्भ-
पात होने के तुरन्त बाद भी
इसे लगवाया जा सकता है।
यदि आप स्तनपान करवा
रही हैँ तो प्रसव के 40 दिन
के बाद ये इंजैक्शन लगवा
सकती हैँ। स्तनपान न
करवाने वाली महिलाएं भी
प्रसूति के तुरंत बाद इंजैक्शन
लगवा सकती हैँ।

प्रo दूध पिलाने वाली माँएं
भी इसे ले सकती हैँ?
उo जी हाँ, दूध पिलाने
वाली माँओँ के लिए भी यह
सुरक्षित है।

प्रo तिमाही गर्भनिरोधक
इंजैक्शन कैसे असर करता
है?
उo तिमाही गर्भ निरोधक
के दौरान अण्डाशय मेँ अण्डा
विकसित नहीँ होता इसलिए
स्त्री गर्भवती नहीँ होती है
साथ ही गर्भाशय की अन्दरूनी
परत भी गददेदार नहीँ बनती ।

प्रo क्या इस इंजैक्शन
(डिपो प्रोवेरा 150 mg) का
प्रयोग बंद करने के मैँ माँ
बन सकती हूँ ?
उo बिल्कुल, इसका आपकी
गर्भधारण क्षमता पर कोई
असर नहीँ पड़ेगा। ज्यादातर
महिलाओँ मेँ आखिरी इंजैक्शन
के असर खत्म होने के 5-6
महिने बाद माहवारी शुरू
हो जाती है और गर्भधारण
क्षमता पहले जैसी हो जाती
है।

प्रo क्या तिमाही गर्भनिरोधक
इंजैक्शन के इस्तेमाल से
मेरे शरीर मेँ कोई बदलाव
आयेगा या मेरी सेहत पर
कोई असर पड़ेगा ?
उo इससे आपकी सेहत पर
कोई असर नहीँ पड़ेगा पर
आपके मासिक चक्र मेँ परी-
वर्तन जरूर आयेगा। कुछ
महिलाओँ को शुरूआती
महिनोँ मेँ अनियमित रक्त
स्त्राव और दाग-धब्बे आ
सकते हैँ फिर माहवारी धीरे
-धीरे बन्द हो जायेगी। जब
तक आप सूई लगवाती
रहेँगी यह असर रहेगा। जब
आप सूई लगवाना बंद कर
देँगी तो माहवारी पुन: शुरू
हो जाएगी।

प्रo महिलाओँ को गर्भ निरोधक
इंजैक्शन क्योँ चुनना चाहिए ?
उo क्योँकि एक सूई से आप
3 महिने के लिए निश्चिँत
हो सकती हैँ। इस इंजैक्शन
से माँ के दूध की मात्रा या
उसके गुणोँ पर कोई असर
नहीँ पड़ता बल्कि यह तो
मासिक रक्तस्त्राव मेँ कमी
लाकर एनीमिया को रोकने
मेँ सहायता करता है।

प्रo क्या यह इंजैक्शन सभी
महिलाओँ के लिए ठीक
रहेगा ?
उo यह इंजैक्शन अधिकतर
महिलाओँ को लगाया जाता
है लेकिन कुछ एक अवस्थाओँ
मेँ इसे नहीँ देते मसलन
लीवर रोग, हाई ब्लड प्रैशर
आदि। अगर आपको यह
इंजैक्शन लेना हो तो अपनी
स्त्री-रोग विशेषज्ञ से संपर्क
करेँ।

 
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