रविवार, 19 जून 2011

अण्डॆ(Ovam) के निर्माण काल में बदल जाता है बेटियों का व्यवहार

यदि आपकी 18 से 22 साल की बेटी हर महीने किसी खास पीरियड में आपसे बात करने से कतराए तो समझ जाइए कि उस समय वह प्रजनन(हाई फटार्इल पीरीयड) के उच्च स्तर पर है। यानी उस अवधि में उसके अंदर अंडा निर्माण की प्रक्रिया चल रही है। वह उस अवधि में आकर्षक दिखने के लिए सलीके से कपड़े पहनेगी, सजेगी-संवरेगी, लेकिन अपने पापा से बात करने से झिझकेगी। उसकी मस्‍ती सीमित हो जाती है और वह एकांत पसंद करती है।                                                                   इस अवधि में उसकी आवाज में एक मादकता आ जाती है, जो पुरुषों को आकर्षित करती है। अचेतन मन से ही, लेकिन लड़कियां नहीं चाहती कि अण्डाणु निर्माण की अवधि में उसके साथ कोई टोका-टोकी किया जाए। पापा वह शख्‍स होता है, जो अपनी बच्चियों की सुरक्षा के लिए उस पर सबसे अधिक नजर रखता है और शायद यही लड़कियों को इस काल में नागवार गुजरती है।


मां के अधिक करीब
अंडा निर्माण काल में एक युवा लड़की अपने पापा से अधिक अपनी मां से बात करना पसंद करती है। वास्तव में लड़की की पूरी चेतना फलिर्टिलिटी पीरियड में उसे अपने पापा से थोड़ा दूर और मां के करीब रखता है। इस समय लड़की का अपनी मां से भावनात्मक लगाव बढ़ जाता है जबकि सामान्य काल या अनुर्वर अवधि में उसका भावनात्मक लगाव पापा से अधिक होता है।


क्‍या कहता है शोध
फ़्लर्टन के यूनिवर्सिटी ऑफ मियामी एण्ड कॉल स्टेट ने 18 से 22 साल की 48 लड़कियों के मोबाइल फोन के रिकॉर्ड के आधार पर एक अध्ययन किया है। इस अध्ययन में लड़कियों ने उर्वर व अनुर्वर पीरियड में लड़कियों के अपने माता-पिता से बात करने के समय में अन्तर पाया गया। अध्ययन से यह पता चला कि अण्डाणु निर्माण की अवधि यानी उर्वरता काल में लड़कियां अपने पापा से कम बात करती है, जबकि सामान्य काल या अनुर्वर अवधि में वह इसकी अपेक्षा मोबाइल पर पापा से अधिक देर तक बातें करती रही हैं।


मोबाइल कॉल ने खोली पोल

अध्ययन में शामिल लड़कियों ने उर्वर काल में अपने पापा से जहां औसतन प्रतिदिन 1.7 मिनट बात की, वहीं अनुर्वर काल में प्रतिदिन बातचीत की यह अवधि 3.4 मिनट पाई गई। इस दौरान लड़कियों की मां से बातचीत बढ़ गई। प्रति दिन लड़कियां अपनी मां से औसतन 4.7 मिनट तक बातें करने लगी जबकि सामान्य समय में यह 4.2 मिनट प्रति दिन था।

विशेषज्ञों की राय

प्रजनन जीववैज्ञानियों की राय में अंडाणु निर्माण के दौरान स्त्रियां किसी भी तरह के सामाजिक संबंध से कतराती है। ऐसा वह अनजाने ही करती है, लेकिन ऐसे समय वह अपने नातेदार पुरुषों से हमेशा दूर रहने की कोशिश करती है। मीयामी यूनिवर्सिटी के फिजियोलॉजी विभाग के सहायक प्रोफेसर डेब्रा लिब्रेमैन के मुताबिक ऐसे समय स्त्रियों के अंदर सकारात्‍मक ऊर्जा का संचार होता रहता है।

स्त्रियों का चेतन या अचेतन मन से किया गया व्‍यवहार उसके अंदर अंडे के निर्माण पर प्रभाव डालता है। पिता जैसे निकटतक पुरुष नातेदार से अधिक समय तक उसका सामाजिक व्‍यवहार उसके अंदर अनुर्वरता या नकारात्‍मक ऊर्जा को उत्‍पन्‍न कर सकती है। ऐसे काल में स्त्रियां निखर उठती है और संभवत: पिता वह प्राणी होता है, जो उसकी हर हरकत पर नजर रखता है। ऐसे में उसके निखरने या सजने-संवरने पर हल्‍की टोका-टोकी भी नकारात्‍मक ऊर्जा उत्‍पन्‍न कर सकता है, जो उसके उस अवधि में अंडाणु निर्माण की पूरी प्रक्रिया पर असर डाल सकता है। अंडे के कम या अधिक निर्माण पर इनका असर पड़ता है।

प्रजनन काल में स्त्रियों का व्‍यवहार

विशेषज्ञों के अनुसार अंडाणु निर्माण काल में लड़कियां निखर उठती हैं। वह सामान्‍य काल की अपेक्षा इस अवधि में पुरुषों को अधिक आकर्षक लगती हैं। उनकी आवाज में एक खुमारी-सी आ जाती है और आवाज का पिच बदल जाता है। उसका शारीरिक गठन भी सुडौल लगता है और व्‍यवहार भी बदल जाता है। वह इस अवधि में जुबान से अधिक आंखों से बात करना पसंद करती है।

वह अपने पिता से दूर रहना पसंद करती है, लेकिन यदि ब्‍वॉयफ्रेंड है तो वह उसके साथ अधिक समय बिताना चाहती हैा शादीशुदा महिलाएं अंडाणु निर्माण काल में अपने पति से अधिक अच्‍छे से पेश आती है, उसके साथ अधिक समय बिताना पसंद करती है और संभोग के लिए कई बार वही पहल भी करती है। अंडाणु निर्माण महिला की प्रजनन शक्ति का द्योतक है, जो उसके पूरे व्‍यक्तित्‍व को एक नया आकार दे देता है। प्रजनन काल के बीतने पर स्त्रियों का सामान्‍य व्‍यवहार यानी पुरानी मस्‍ती लौट आती है।



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शुक्रवार, 3 जून 2011

अब मच्छर नहीँ काट सकेगेँ

मुमकिन है कि जल्द ही आपको मच्छरोँ के काटने से छुटकारा मिल जाए । भारतीय मूल के एक शोधकर्ता की अगुवाई मेँ अमेरिकी Scientists की एक टीम ने ऐसी गैस तैयार करने का दावा किया है जो मच्छरोँ को उलझन मेँ डालकर उनकी सोचने समझने की ताकत छीन लेती है ।
यूनिवर्सिटी आँफ कैलीफोर्निया के शोधकर्ताओँ ने खुशबूदार अणुओँ का तीन वर्ग तैयार किया है जो मच्छरोँ की इंद्रीय शक्तियोँ को बेकार कर देते हैँ । नतीजतन मच्छरोँ के लिए इंसानोँ का खून पीना मुश्किल हो जाता है । शोधकर्ताओँ का कहना है कि इस खोज से बाजार मेँ नए तरीके के लोशन और स्प्रे आ सकते है ।


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मंगलवार, 31 मई 2011

कैँसर की रेडिएशन के जरिए सर्जरी


फेफड़ोँ मेँ यदि शुरूआत मेँ ही कैँसर का पता लग जाए तो रेडियो सर्जरी काफी कारगर है । इस तकनीक मेँ बिना आँपरेशन रेडिएशन के जरिए सर्जरी का जाती है । कैँसर यदि बढ़ गया है तो कीमोथेरेपी और रेडियोथेरेपी के ही विकल्प बचते हैँ । सिर से लेकर गले तक के कैँसर मेँ बीमारी के फैलाव के आधार पर रेडियोथेरेपी या कीमोथेरेपी या सर्जरी की जाती है ।




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च्युंईँगम से स्मोकिँग को गुडबाय


प्रयाग अस्पताल के डाँ. इमरान कहते हैँ कि प्रमुख दवा निर्माता कंपनी सिपला फार्मास्युटिकल ने 'निकोटेक्स' जबकि फाइजर फार्मा ने 'चैँपिक्स' नाम से कुछ समय पहले च्युंईँगम लांच किये थे । 2 और 4 mg निकोटिन की क्षमता वाले ये च्युंईँगम खाते ही सिगरेट पीने या गुटख या मसाला खाने की तलब बिल्कुल खत्म हो जाती है ।
इनका असर 2 से 4 घंटे तक रहता है ।


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क्योँ लगती है निकोटिन (तंबाकू) की लत ?


सिगरेट का हर कश 10 सेकेंड के अंदर दिमाग को निकोटिन भेजता है । उसी दौरान इसके लती को चुस्ती और मन को शांति का अहसास होता है । यह अहसास ही और कश लेने या गुटखा खाने के लिए प्रेरित करता है ।
निकोटिन दिमाग के > उस हिस्से को सक्रिय बना देता है और निकोटिन की जरूरत लगातार पड़ने लगती है । जल्द ही दिमाग की संरचना बदल जाती है और व्यक्ति निकोटिन का लती हो जाता है ।



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शुक्रवार, 20 मई 2011

फायदेमंद है तरबूज

प्यास बुझाने मेँ तरबूज का जबाब नहीँ । तरबूज का 70 से 80 प्रतिशत भाग खाया जाता है । लाल रंग के गूदे वाले तरबूज मेँ सबसे अधिक लाइकोपिन पाया जाता है । लाइकोपिन एंटीआँक्सीडेँट की तरह काम करता है । तरबूज मेँ बीटा केरोटिन भी प्रचुर मात्रा मेँ पाया जाता है । इसके छिलके मेँ सिट्रलिन रसायन पाया जाता है जो शरीर मेँ एर्जीमिन अमिनो एसिड बनाता है । यह एसिड शरीर से अमोनिया व अन्य विषैले पदार्थोँ को शरीर से बाहर निकालने मेँ सहायता करता है ।

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रविवार, 8 मई 2011

संगीत से चिकित्सा होगी अब

अगर आप पेट दर्द या सिर दर्द से तड़पते हुए अस्पताल पहुंचे और वहां पहुंचने पर डाक्टर दवा देने के बजाय आपको संगीत सुनाने लगे तो चौंके नहीं। शायद आपको विश्वास नहीं हो, लेकिन आने वाले समय में संगीत को कई बीमारियों के इलाज का कारगर नुस्खे के तौर पर इस्तेमाल में लाया जाने वाला है। विदेश के साथ साथ भारत के कई अस्पतालों में भी इसका इस्तेमाल किया जा रहा है।


स्वास्थ्य पर संगीत के प्रभाव को लेकर अनेक देशों में हुए वैज्ञानिक अध्ययनों से पता चला है कि मनपसंद संगीत सुनने से ब्लड प्रेशर में कमी आती है, दिल की धड़कन नियमित होती है, डिप्रेशन दूर होता है, बेचैनी में कम होती है और ध्यान केंद्रित करने की क्षमता बढ़ती है। आपरेशन के दौरान या उसके बाद दर्द निवारक दवाइयों की जरूरत कम होती है, कीमोथिरेपी के बाद उल्टी की शिकायत कम होती है, दर्द से राहत मिलती है और पार्किसन के रोगी के अंगों में स्थिरता आती है। संगीत चिकित्सा का इस्तेमाल प्रसव पीड़ा को कम करने के अलावा सिर दर्द और सर्दी, जुकाम जैसी रोजमर्रे की समस्याओं को दूर करने में भी हो रहा है। पश्चिमी देशों में संगीत का इस्तेमाल पार्किसन व अल्जाइमर जैसी खतरनाक बीमारियों के इलाज में भी होता है।

नई दिल्ली के इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल के बॉडी माइंड क्लीनिक में आने वाले मरीजों के इलाज के लिए संगीत चिकित्सा का भी इस्तेमाल किया जाता है। इस क्लीनिक के प्रमुख और वरिष्ठ होलिस्टिक चिकित्सा विशेषज्ञ डा. रविंद्र कुमार तुली का कहना है कि मानसिक रोगों के मरीजों पर संगीत का चमत्कारिक असर होता है। संगीत मैटाबाल्जिम को तेज करता है, मांसपेशियों की ऊर्जा बढ़ाता है, श्वसन प्रक्रिया को नियमित करता है और ब्लड प्रेशर पर भी सकारात्मक प्रभाव डालता है।

दुनिया के अनेक देशों के साथ साथ भारत में भी संगीत को लेकर अनेक स्तरों पर अध्ययन-अनुसंधान हो रहे हैं। चेन्नई के अपोलो अस्पताल ने संगीत चिकित्सा पर एक साल का एक पाठ्यक्रम शुरू किया है। मुंबई के एक अस्पताल और नागपुर के डाक्टरों की एक टीम ने संगीत चिकित्सा के बारे में अलग-अलग प्रशंसनीय कार्य किए हैं। डयूटी के दौरान दिल के दौरे पड़ने के बढ़ रहे मामलों के मद्देनजर मंुबई पुलिस ने भी तनाव घटाने के लिए संगीत का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। बड़ोदरा में किए गए अध्ययनों में पाया गया कि शास्त्रीय संगीत अनेक तरह की समस्याओं को दूर करने में सहायक है। डाक्टरों का मानना है कि संगीत का उन्मादी लोगों पर भी सकारात्मक असर पड़ता है।
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सोमवार, 2 मई 2011

ऐसे रह सकते हैँ आप हेल्दी


शरीर के लिए डीटाँक्सिफिकेशन उतना ही जरूरी है , जितना घर के लिए सफाई। आप इन टिप्स को फाँलो करके तन-मन साफ रख सकते हैँ :


माँडर्न लाइफस्टाइल की वजह से बाँडी कई तरह के विषैले पदार्थोँ यानी टाँक्सिँस के प्रभाव मेँ आ जाती है । इससे बाँडी सुस्त रहती है और सिस्टम भी ढीला पड़ जाता है । जाहिर है , इससे काम पर इफेक्ट पड़ता है । ऐसे मेँ बाँडी को रेग्युलर डीटाँक्सिफाई करना चाहिए यानी ऐसी डाइट लेँ , जिससे बाँडी से टाँक्सिँस निकल जाएँ ।


क्योँ करेँ डीटाँक्स :-
बाँडी मेँ जब विषैले पदार्थ इकटठे होते हैँ , तब काम करने की कैपेसिटी कम हो जाती है । इससे दिमाग भी थका हुआ महसूस करता है और आप पूरी तरह रीलैक्स फील नहीँ कर पाते हैँ । बाँडी मेँ टाँक्सिँस के जमा होने से और भी कई तरह की परेशानियां हो सकती हैँ । मसलन सेल्स मेँ इनके जमा होने से इम्युनिटी सिस्टम कमजोर हो सकता है , जिससे जुकाम , खांसी , लगातार छीँकेँ आती हैँ । इनसे बचने के लिए डीटाँक्सिफिकेशन तो जरूरी है ही , इसी के साथ डाइट कंट्रोल , एक्सरसाइज , मसाज , रीफलैक्सोलजी , ब्रीदिँग टेक्नीक , मेडिटेशन वगैरह भी जरूरी है ।


ये हैँ फायदे :-
डिटाँक्सिफिकेशन स्टेमिना बढ़ाने का बेहतर तरीका है । इससे आप लाइट , फ्री और फ्रेश महसूस करेँगे । इससे होने वाले तमाम फायदोँ मेँ स्किन व काँम्प्लेक्शन का अच्छा होना, इम्युनिटी सिस्टम का स्ट्राँन्ग होना, पाचन क्षमता का बढ़ना, स्टेमिना और एनर्जी लेवल बढ़ना, मेटाबाँलिज्म का इंप्रूव होना वगैरह हैँ ।
डीटाँक्सिफिकेशन मे ली जाने वाली डाइट से हानिकारक पदार्थ बाहर निकल जाते हैँ और पूरी बाँडी का सिस्टम क्लीन हो जाता है । इस दौरान सबसे ज्यादा इफेक्ट डाइजेस्टिव सिस्टम पर पड़ता है, क्योँकि रिलीफ होने का पूरा टाइम मिलता है । इस प्रोसेस के दौरान फाइबर रिच डाइट मसलन फ्रूट्स, वेजिटेबल और साबुत अनाज ज्यादा लेँ वहीँ, लिक्विड मेँ फ्रूट जूस, वेजिटेबल जूस और सूप ही लेँ । इस दौरान स्मोकिँग, अल्कोहल, काँफी वगैरह ना लेँ । साथ ही, रेड मीट, फैट्स और शुगर जैसी चीजों से परहेज करेँ । दो से तीन दिन तक शाँर्ट व हल्की डाइट लेँ ।
डीटाँक्सिफिकेशन की साइकल हफ्ते मेँ एक दिन और महिने मेँ तीन दिन ही करेँ । अगर आप लंबे टाइम तक डीटाँक्सिफिकेशन डाइट लेना चाहते हैँ, तो डाइटिशियन की सलाह जरूर ले लेँ ।


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शनिवार, 16 अप्रैल 2011

सारे कैँसर को जड़ से मिटा देगा अब एक टीका

कैँसर का टीका तैयार कर रहे Scientists ने कहा है कि अब एक ही इंजेक्शन सभी तरह के टयूमर्स को जड़ से खत्म कर देगा । यह इंजेक्शन दो साल मेँ बाजार मेँ आ जायेगा ।
योँ तो टीके के जरिये रोगोँ से बचाव किया जाता है, लेकिन टेलोवैक इंजेक्शन का इस्तेमाल इलाज के तौर पर किया जायेगा । मौजूदा दवाओँ मेँ ज्यादातर कैँसर की कोशिकाओँ पर हमला करती हैँ । लेकिन टेलोवैक इंजैक्शन टयूमर्स के खिलाफ शरीर की प्रतिरोधक क्षमता का इस्तेमाल करेगा । इससे इम्यून सिस्टम इस कदर तेज हो जाएगा कि वह टेलोमेराज नाम के एंजाइम को नष्ट कर सकेगा । यह एंजाइम कैँसर की कोशिकाओँ मेँ भारी मात्रा मेँ पाया जाता है । टेलोमेराज के कारण ही कोशिकाएं मरती नहीँ, जबकि स्वस्थ कोशिकाओँ का स्वभाव मर जाना है । कोशिकाओँ के न मरने से टयूमर का विस्तार होता जाता है ।
ब्रिटेन मेँ अपने तरह के सबसे बड़े ट्रायल मेँ पैँक्रियाटिक कैँसर के आखिरी स्टेज मेँ पहँच चुके 1000 लोगोँ पर सामान्य दवाओँ के साथ इस टीके को आजमाया गया । 53 अस्पतालोँ मेँ हुए इस ट्रायल के नतीजे अगले साल तक उपलब्ध हो पाएंगे, लेकिन रोगियोँ का कहना है कि ट्रायल मेँ शामिल होने से उन्हेँ एक-दो साल और जीने का मौका मिल गया । ट्रायल के कोआँर्डिनेटर जाँन नेपटोलमोस का कहना है कि पैँक्रियाटिक कैँसर को शरीर का इम्यून सिस्टम पहचान नहीँ पाता, लेकिन उससे टेलोमेराज का रिसाव यह टीका पहचान लेता है और इसके खिलाफ लड़ाई शुरू करा देता है ।
टेलोवैक टीके का विकास कर रही कोरियाई कंम्पनी जेमवैक्स के संस्थापक डाँ जे सांगजे किम का कहना है, दूसरे कैँसर टीकोँ की कमियोँ को यह टीका दूर कर देगा ।


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शुक्रवार, 11 मार्च 2011

डायटिंग को कहें बाय, मोटापे पर मत मचाएं हाय

अगर आपको डायटिंग पसंद नहीं तो अब आप यह बहाना भी मार सकते हैं कि वजन घटाना हमेशा अच्छा नहीं होता। थोड़ा सा मोटा होना और बैलेंस्ड डाइट खाना ज्यादा सेहतमंद है। यह कोई हवाई बात नहीं है, बल्कि रिसर्च में साबित हुई बात है। रिसर्चरों के मुताबिक, यह बात कहकर कुछ ज्यादा ही डराया जाता है कि मोटापा खतरनाक है, पर असल में वजनदार लोग लंबी उम्र जीते हैं। ऐसे लोग अगर जबरदस्ती स्लिम बनने की कोशिश करते हैं तो उनकी सेहत को बड़ा खतरा पैदा हो सकता है।

ब्रिटिश अखबार डेली मेल ने न्यूट्रिशन मैगजीन में छपी इस स्टडी के हवाले से बताया है कि लोगों को तरह-तरह की और बैलेंस्ड डाइट लेनी चाहिए। साथ ही बिना फिक्र किए मजे के साथ एक्सरसाइज करनी चाहिए। फिर चाहे आपका वजन कुछ पाउंड ज्यादा ही क्यों न हो।

स्टडी करने वालों में शामिल एक डायटीशियन ने दावा किया है कि डायटिंग को लेकर लोगों का जुनून खास काम नहीं आता। खाना सामने आते ही वे उस पर टूट पड़ते हैं जिससे वे ज्यादा मोटे हो जाते हैं। यह स्टडी रिपोर्ट कैलिफॉर्निया यूनिवर्सिटी ने साढ़े तीन लाख अमेरिकी लोगों पर विश्लेषण के बाद तैयार की है। रिसर्चर लिंडा बेकन के मुताबिक, काफी सबूत यह साबित करते हैं कि ज्यादा वजन वाले सामान्य वजन वालों से ज्यादा जीते हैं।

जो बुढ़ापे में मोटे होते हैं वे बुढ़ापे में पतले दिखने वालों से ज्यादा जीते हैं। यही नहीं टाइप-2 डायबीटीज, हार्ट की बीमारी और किडनी फेल होने जैसी स्थितियों में मोटे लोगों के बचने के चांस ज्यादा होते हैं। हालांकि सभी जानते हैं कि मोटापा दिल की बीमारियों और दूसरी बीमारियों का खतरा बढ़ाता है पर रिसर्चरों का कहना है कि इन बीमारियों की वजह मोटा होना नहीं है। बल्कि वे इसके लिए सही से खानपान न होना और एक्सरसाइज न करना मानते हैं, जो कि अक्सर मोटापे के साथ आती हैं।

स्टडी में सलाह दी गई है कि डायटिंग की दीवानगी के बजाय, अगर लोग अपने शरीर को जैसा है, वैसा स्वीकार करने लगें और उसी का सही से ख्याल रखें, तो ज्यादा अच्छी सेहत बनेगी। खाने में तरह-तरह की पोषण वाली चीजें खाएं, न कि खुद को कुछ कैलरी तक सीमित रखें।
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हाई ब्लड प्रेशर क्यों होता है, पता चल गया

शरीर में आखिर किस वजह से हाई ब्लड प्रेशर होता है, ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने यह जानने का दावा किया है। अब हाई बीपी के इलाज के नए तरीके ढूंढे जा सकते हैं।


शरीर किस तरह से ब्लड प्रेशर को कंट्रोल करता है, इसके एक जरूरी स्टेप के बारे में कैंब्रिज यूनिवर्सिटी और नॉटिंघम यूनिवर्सिटी के रिसर्चरों ने पता लगाया है। यह भी पता चला है कि इस प्रक्रिया में कब गड़बड़ी हो जाती है। स्टडी से जुड़े प्रो. रॉबिन कैरल कहते हैं, मुख्य प्रक्रिया का पहला कदम जान लिया है। रिसर्चरों का मानना है कि इस प्रक्रिया को फोकस में रखकर गड़बड़ियां रोकी जा सकती हैं और हाइपरटेंशन पर काबू पाया जा सकेगा।

मौजूदा दवाइयों का फोकस ब्लड प्रेशर को कंट्रोल करने वाली प्रक्रिया के आखिरी स्टेज पर होता है। नई स्टडी से उम्मीद है कि शुरुआती स्थिति में ही हाई ब्लड प्रेशर रोका जा सकेगा। दुनिया भर में लाखों लोग हाइपरटेंशन से परेशान हैं। इससे उन्हें हार्ट अटैक और स्ट्रोक का खतरा होता है।

रिसर्चरों ने यह जानकारी तब हासिल की, जब वे प्री-इक्लेम्पसिया की स्टडी कर रहे थे। प्रेग्नेंसी के दौरान हाई ब्लड प्रेशर की यह स्थिति जच्चा-बच्चा दोनों के लिए जानलेवा हो सकती है। ब्लड प्रेशर पर कंट्रोल एंजियोटेंसिन नाम के हार्मोन्स के जरिए होता है। इसकी बड़ी डोज रक्त नलिकाओं को सिकोड़ देती है, जिससे ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है।

20 बरस से स्टडी कर रहे वैज्ञानिकों का कहना है कि हमने इन हार्मोन्स के विकास का पहला स्टेप ढूंढ लिया है। अब हम ऐसा इंतजाम करेंगे, जिससे यह हार्मोन अधिक मात्रा में विकसित हो। इससे हाई ब्लड प्रेशर की शुरुआत को ही रोका जा सकेगा। महज 10 साल में गोली भी आ सकती है। प्री-इक्लेम्पसिया का भी नया इलाज ढूंढा जा सकता है।


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गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

खुदकुशी रोकने की बनेगी दवा

हर साल दुनिया भर में लाखों लोग तनाव और अवसाद का शिकार होकर अपनी जिंदगी खत्म कर लेते हैं। उनके इस भयानक इरादे का करीबी लोगों को भनक तक नहीं लगती
लेकिन अब इस दिशा में बड़ी उम्मीद जगी है। अब यह जानना संभव हो सकेगा कि व्यक्ति कहीं आत्महत्या जैसा कदम उठाने की ओर तो नहीं बढ़ रहा। ऐसा शरीर में मौजूद एक खास प्रोटीन का स्तर जान कर किया जा सकता है। वैज्ञानिकों ने इस प्रोटीन की पहचान कर ली है।

कनाडा के शोधकर्ताओं ने उस रहस्य को सुलझा लेने का दावा किया है जिसके कारण लोग आत्महत्या करते हैं या बहुत गहरे अवसाद का शिकार हो जाते हैं। एक अध्ययन के दौरान शोधकर्ताओं ने पाया कि जो लोग आत्महत्या करते हैं, उनके दिमाग में एक खास तरह की प्रोटीन का स्तर बढ़ जाता है।

यूनिवर्सिटी आफ वेस्टर्न ओंटारियो के माइकल पोल्टर और चा‌र्ल्टन यूनिवर्सिटी के हाइमी एनिसमैन के नेतृत्व
वाले एक अंतरराष्ट्रीय शोध दल ने अपने अध्ययन के
दौरान पाया कि उस खास प्रोटीन का स्तर बढ़ने का
उस विशेष जीन पर प्रभाव पड़ता है जो तनाव और
चिंता को नियंत्रित करता है।

शवों के पोस्टमार्टम के दौरान इन लोगों ने पाया कि अन्य कारणों से मरने वालों की तुलना में आत्महत्या करने वालों में उस खास प्रोटीन का स्तर अधिक था जो तनाव और चिंता को नियंत्रित करने वाले जीन को प्रभावित करता है। शोधकर्ताओं ने बताया कि इस प्रोटीन से उस विशेष जीन में रासायनिक परिवर्तन होता है जिसे हम 'इपिजेनोमिक रेगुलेशन' प्रणाली के रूप में जानते हैं। इस परिवर्तन का परिणाम यह होता है कि तनाव को नियंत्रित करने वाले जीन या तो काम करना बंद कर देते हैँ या फिर गलत ढंग से काम कराना शुरू कर देते हैँ इस तरह तनाव से लड़ने की व्यक्ति की क्षमता को यह बर्बाद कर देता है और व्यक्ति आत्महत्या कर लेता है।शोधकर्ताओं का कहना है कि यह खास जीन दिमाग के क्रियाकलाप को नियंत्रित करने में विशेष भूमिका निभाता है।

पोल्टर के अनुसार, इसके रासायनिक बदलाव की प्रकृति दीर्घकालिक होती है। इसकी परिणति अवसाद के रूप में होती है। उन्होंने कहा कि इस अध्ययन के परिणाम ने पूरी तरह से शोध का एक नया रास्ता खोल दिया है। इस खोज से आत्महत्या की प्रवृत्ति से निजात दिलाने वाली दवा विकसित करने में भी मदद मिलेगी।

अध्ययन का यह परिणाम चल रहे उस शोध का हिस्सा है जिसमें इस बात की जांच की जा रही है कि किस तरह जीन में परिवर्तन की अभिव्यक्ति होती है। वैज्ञानिकों के अनुसार एक खास प्रोटीन का स्तर बढ़ने से व्यक्ति आत्महत्या के लिए प्रेरित होता है।


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सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

हृदय रोगोँ का प्रभावी इलाज

ह्दय रोग मे प्याज का रस काफी लाभकारी पाया गया है. सुबह के समय कच्चे सफेद प्याज का रस दो छोटे चम्मच पीने से हदय रोग के किसी भी अवस्था में लाभ मिलता है. डा० सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार ने अपनी पुस्तक "रोग और उनकी होम्योपैथिक चिकित्सा" मे इसके बारे जिक्र करते हुए
लिखा है कि अरब के एक उच्च कोटि के धनी मानी व्यक्ति का कथन है कि उसे ह्दय के रोग के दौरे पडते थे. उसने अपने घर में कार्डियोग्राम की मशीन लगा रखी थी. और प्रतिदिन वह अपने ह्दय की गति की जाँच करवाया करता था. डाक्टरों ने उसे बीसियों गोलियां खाने को दिया था. अरब के एक हकीम ने उसे प्याज का रस पीने का नुख्सा बताया था. उसने आजमाया और उसका ह्दय का रोग जाता रहा. उसने डाक्टरों की गोलियां और मशीन सभी अलग कर दी और प्याज का दो चम्मच रस प्रतिदिन पीने से वह स्वस्थ हो गया ।

लखनऊ के किंग जार्ज मेडिकल कालेज के डा० एन० एन० गुप्त ने अपने परीक्षणों के आधार पर यह कहा है कि कच्चा प्याज का सेवन करने से ह्दय रोगों से बचा जा सकता है । ह्दय रोग मे चने की दाल भी काफी फायदेमंद है. इंडियन कौसिंल आफ मेडिकल रिसर्च द्वारा आयोजित आगरा के एस० एन० मेडिकल कालेज मे किये गये परीक्षणों से यह सिद्ध हुआ है की चने की दाल खाने से ह्दय का रोग नहीं होता है. ह्दय रोग में ह्दय की धमनियों (ARTERIES) मे कोलेस्ट्ररोल की परत जम जाती है जिससे धमनियां मोटी हो जाती है और उसमे खुन के प्रवाह के रुकावट होने लगती है जो दिल के दौरे का मुख्य कारण है. चने की दाल खाने से कौलेस्ट्रोल घुलने लगता है. ह्दय रोगियों को चने की दाल और कच्चे प्याज का अधिक सेवन करना चाहिए.

होम्योपैथिक दॄष्टिकोण से ह्दय रोग मे काफी औषधियां है जो ह्दय रोगी के शारीरिक और मानसिक लक्षण के साथ साथ मियाज्म के आधार पर दिया जाता है पर एक दवा क्रैटेगस (CRATAEGUS), मुल अर्क की १५--१५ बुन्द आधे कप पानी मे डालकर दिन मे दो बार लेने से आश्चर्यजनक लाभ मिलता है. जिस ह्दय रोग मे आपरेशन की अनुशंशा की गई है उनके लिए भी यह समान रुप से उपयोगी है. किसी भी एलोपैथिक दवाओं के साथ साथ इसे भी लें तो धीरे धीरे एलोपैथिक दवाओं से छुट्टी मिल सकती है. लम्बे मुझे अपने परिवार के कुछ सदस्यों और मित्रों पर इसके उपयोग से चमत्कारिक लाभ मिला है. ह्दय (सीने) मे दर्द होने पर इसी दवा की १०-१० बुन्द प्रत्येक पंद्रह पंद्रह मिनट पर दो तीन खुराक मे आराम आ जाता है. उसके बाद कुछ दिनों तक १५ - १५ बुन्द दवा दिन मे तीन बार लें. फिर सिर्फ दो बार शुबह और शाम मे लें.कोई भी ह्दय रोग से पीडित व्यक्ति इस दवा का बिना किसी हिचकिचाहट के उपयोग कर सकते है. ह्दय रोग मे दवा के साथ साथ प्राणायाम भी काफी लाभ देता है. प्राणायाम से फेफडों मे ज्यादा आक्सीजन मिलता है जिससे ह्दय के धमनियों मे जमा कोलेस्ट्रोल की परत को साफ होने मे मदद मिलती है ।


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गुरुवार, 13 जनवरी 2011

अब डाइटिँग बिना भी घट सकेगा वजन

डाइट मेँ बिना बदलाव किए अब एक हफ्ते मेँ 2 पाउंड वजन कम किया जा सकता है ।
एक अमेरिकी दवा कम्पनी ने दावा किया है कि विकसित की गई नई गोली जेडजीएन(ZGN)-433 मोटापा कम करने मेँ सफल है । कंपनी ने इस गोली का करीब 24 ऐसी मोटी महिलाओँ पर परीक्षण किया , जिन्होँने एक माह के भीतर हर हफ्ते अपना वजन कम किया ।
इस गोली को खाने के दौरान डाइटिँग व कसरत करने की भी जरूरत नहीँ है । यह गोली नौ माह मेँ 20 से 40 फीसदी तक वजन को कम कर देती है ।


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शनिवार, 8 जनवरी 2011

सर्दी मेँ त्वचा की खुश्की , खुजली तथा सिर की रूसी का प्रभावी इलाज

जैसा कि आप सभी जानते है की सर्दी के मौसम मेँ जब शीत लहर चलती है तो हमारी त्वचा अपनी नमी
( मायश्चर) खो देती है जिससे हमारी त्वचा खुश्क हो जाती है तथा त्वचा मेँ खुजली व जलन होने लगती है । इससे बचने के लिए हमेँ हल्के गुनगुने पानी से स्नान करना चाहिए क्योँकि ठंडे पानी से स्नान करने पर शरीर के रोम छिद्र पूरी तरह नहीँ खुल पाते हैँ जिससे त्वचा को आक्सीजन नहीँ मिल पाती है ।
अतः हल्के गुनगुने पानी से नहाने के बाद यदि ग्लिसरीन और गुलाब जल के मिश्रण की पूरे शरीर पर मालिश की जाए तो हम इस समस्या से बच सकते हैँ ।


-: मिश्रण बनाना :-


* 25 ml. ग्लिसरीन तथा 75 ml. गुलाब जल को लेकर एक साफ शीशी मेँ Mix करलेँ । इस प्रकार अब ये आपके लिए लोशन तैयार हो गया ।


-: लोशन की प्रयोग विधि :-


* हल्के गुनगुन पानी से स्नान के बाद रोएदार तौलिए से शरीर को सुखाकर इस लोशन से मालिश करिए और 48 घण्टे मेँ फायदा देखिए । लेकिन रोजाना लगाइए ।

* यदि आपके सिर मेँ रूसी है तो यह लोशन सिर की त्वचा पर भी लगाइए । सिर की रूसी के लिए ये बहुत ही effective हैँ ।


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बुधवार, 5 जनवरी 2011

भविष्य की बीमारियोँ की पहचान हुई आसान

अगर सब कुछ ठीक रहा तो वह दिन दूर नहीँ जब आपको होने वाली आनुवांशिक बीमारी का पता पहले ही चल जाएगा ।
ब्रिटेन के Scientists ने एक ऐसी नई तकनीक विकसित करने का दावा किया है,
जो किसी भी व्यक्ति के जीनोम को कुछ मिनटोँ मेँ ही तैयार कर सकता है । वह भी मौजूदा खर्चोँ की तुलना मेँ बेहद कम दामोँ पर ।


दरअसल शरीर का सारा राज जीन मेँ छुपा होता है । इसके भंडार को जीनोम कहते है । हमारा जीनोम 31 लाख अलग अलग फाँर्मूलोँ से बना है । इन्हीँ फाँर्मूलोँ मेँ छुपा है सारा राज ।

इंपीरियल काँलेज लंदन की एक टीम ने इस तकनीक का पेटेँट कराया है । इसके तहत आगामी दस साल मेँ बहुत ही तेजी से व्यावसायिक तौर पर DNA की सीक्वेँसिग की जा सकेगी ।
इससे साफ है कि इंसान के DNA को डिकोड करके यह बताया जा सकता है कि आगे वह कौन सी बीमारी का शिकार होगा ।
यह शोध नैनो जर्नल मेँ प्रकाशित हुआ है ।
शोधकर्ताओँ ने पाया कि प्रयोगशाला मेँ एक प्रक्रिया के माध्यम से ही पूरे जीनोम को सीक्वेँस किया जा सकेगा । वर्तमान मेँ इसे जटिल तरीके से छोटे छोटे टुकड़ोँ मेँ तोड़कर लंबे समय मेँ क्रमबद्ध किया जाता है ।
Scientists का कहना है कि तेजी से और कम खर्च पर होने वाले इस जीनोम सीक्वेँसिँग से लोगोँ के DNA के राज तुरंत खुल जाऐँगे और उनमेँ अल्जाइमर्स , डायबिटीज और कैंसर होने की आशंका का पता चल सकेगा ।
प्रमुख शोधकर्ता डाँ. जोशुआ ईडेल ने कहा , "वर्तमान तकनीक की तुलना मेँ यह युक्ति ज्यादा किफायती है ।"


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