रविवार, 19 जून 2011

अण्डॆ(Ovam) के निर्माण काल में बदल जाता है बेटियों का व्यवहार

यदि आपकी 18 से 22 साल की बेटी हर महीने किसी खास पीरियड में आपसे बात करने से कतराए तो समझ जाइए कि उस समय वह प्रजनन(हाई फटार्इल पीरीयड) के उच्च स्तर पर है। यानी उस अवधि में उसके अंदर अंडा निर्माण की प्रक्रिया चल रही है। वह उस अवधि में आकर्षक दिखने के लिए सलीके से कपड़े पहनेगी, सजेगी-संवरेगी, लेकिन अपने पापा से बात करने से झिझकेगी। उसकी मस्‍ती सीमित हो जाती है और वह एकांत पसंद करती है।                                                                   इस अवधि में उसकी आवाज में एक मादकता आ जाती है, जो पुरुषों को आकर्षित करती है। अचेतन मन से ही, लेकिन लड़कियां नहीं चाहती कि अण्डाणु निर्माण की अवधि में उसके साथ कोई टोका-टोकी किया जाए। पापा वह शख्‍स होता है, जो अपनी बच्चियों की सुरक्षा के लिए उस पर सबसे अधिक नजर रखता है और शायद यही लड़कियों को इस काल में नागवार गुजरती है।


मां के अधिक करीब
अंडा निर्माण काल में एक युवा लड़की अपने पापा से अधिक अपनी मां से बात करना पसंद करती है। वास्तव में लड़की की पूरी चेतना फलिर्टिलिटी पीरियड में उसे अपने पापा से थोड़ा दूर और मां के करीब रखता है। इस समय लड़की का अपनी मां से भावनात्मक लगाव बढ़ जाता है जबकि सामान्य काल या अनुर्वर अवधि में उसका भावनात्मक लगाव पापा से अधिक होता है।


क्‍या कहता है शोध
फ़्लर्टन के यूनिवर्सिटी ऑफ मियामी एण्ड कॉल स्टेट ने 18 से 22 साल की 48 लड़कियों के मोबाइल फोन के रिकॉर्ड के आधार पर एक अध्ययन किया है। इस अध्ययन में लड़कियों ने उर्वर व अनुर्वर पीरियड में लड़कियों के अपने माता-पिता से बात करने के समय में अन्तर पाया गया। अध्ययन से यह पता चला कि अण्डाणु निर्माण की अवधि यानी उर्वरता काल में लड़कियां अपने पापा से कम बात करती है, जबकि सामान्य काल या अनुर्वर अवधि में वह इसकी अपेक्षा मोबाइल पर पापा से अधिक देर तक बातें करती रही हैं।


मोबाइल कॉल ने खोली पोल

अध्ययन में शामिल लड़कियों ने उर्वर काल में अपने पापा से जहां औसतन प्रतिदिन 1.7 मिनट बात की, वहीं अनुर्वर काल में प्रतिदिन बातचीत की यह अवधि 3.4 मिनट पाई गई। इस दौरान लड़कियों की मां से बातचीत बढ़ गई। प्रति दिन लड़कियां अपनी मां से औसतन 4.7 मिनट तक बातें करने लगी जबकि सामान्य समय में यह 4.2 मिनट प्रति दिन था।

विशेषज्ञों की राय

प्रजनन जीववैज्ञानियों की राय में अंडाणु निर्माण के दौरान स्त्रियां किसी भी तरह के सामाजिक संबंध से कतराती है। ऐसा वह अनजाने ही करती है, लेकिन ऐसे समय वह अपने नातेदार पुरुषों से हमेशा दूर रहने की कोशिश करती है। मीयामी यूनिवर्सिटी के फिजियोलॉजी विभाग के सहायक प्रोफेसर डेब्रा लिब्रेमैन के मुताबिक ऐसे समय स्त्रियों के अंदर सकारात्‍मक ऊर्जा का संचार होता रहता है।

स्त्रियों का चेतन या अचेतन मन से किया गया व्‍यवहार उसके अंदर अंडे के निर्माण पर प्रभाव डालता है। पिता जैसे निकटतक पुरुष नातेदार से अधिक समय तक उसका सामाजिक व्‍यवहार उसके अंदर अनुर्वरता या नकारात्‍मक ऊर्जा को उत्‍पन्‍न कर सकती है। ऐसे काल में स्त्रियां निखर उठती है और संभवत: पिता वह प्राणी होता है, जो उसकी हर हरकत पर नजर रखता है। ऐसे में उसके निखरने या सजने-संवरने पर हल्‍की टोका-टोकी भी नकारात्‍मक ऊर्जा उत्‍पन्‍न कर सकता है, जो उसके उस अवधि में अंडाणु निर्माण की पूरी प्रक्रिया पर असर डाल सकता है। अंडे के कम या अधिक निर्माण पर इनका असर पड़ता है।

प्रजनन काल में स्त्रियों का व्‍यवहार

विशेषज्ञों के अनुसार अंडाणु निर्माण काल में लड़कियां निखर उठती हैं। वह सामान्‍य काल की अपेक्षा इस अवधि में पुरुषों को अधिक आकर्षक लगती हैं। उनकी आवाज में एक खुमारी-सी आ जाती है और आवाज का पिच बदल जाता है। उसका शारीरिक गठन भी सुडौल लगता है और व्‍यवहार भी बदल जाता है। वह इस अवधि में जुबान से अधिक आंखों से बात करना पसंद करती है।

वह अपने पिता से दूर रहना पसंद करती है, लेकिन यदि ब्‍वॉयफ्रेंड है तो वह उसके साथ अधिक समय बिताना चाहती हैा शादीशुदा महिलाएं अंडाणु निर्माण काल में अपने पति से अधिक अच्‍छे से पेश आती है, उसके साथ अधिक समय बिताना पसंद करती है और संभोग के लिए कई बार वही पहल भी करती है। अंडाणु निर्माण महिला की प्रजनन शक्ति का द्योतक है, जो उसके पूरे व्‍यक्तित्‍व को एक नया आकार दे देता है। प्रजनन काल के बीतने पर स्त्रियों का सामान्‍य व्‍यवहार यानी पुरानी मस्‍ती लौट आती है।



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शुक्रवार, 3 जून 2011

अब मच्छर नहीँ काट सकेगेँ

मुमकिन है कि जल्द ही आपको मच्छरोँ के काटने से छुटकारा मिल जाए । भारतीय मूल के एक शोधकर्ता की अगुवाई मेँ अमेरिकी Scientists की एक टीम ने ऐसी गैस तैयार करने का दावा किया है जो मच्छरोँ को उलझन मेँ डालकर उनकी सोचने समझने की ताकत छीन लेती है ।
यूनिवर्सिटी आँफ कैलीफोर्निया के शोधकर्ताओँ ने खुशबूदार अणुओँ का तीन वर्ग तैयार किया है जो मच्छरोँ की इंद्रीय शक्तियोँ को बेकार कर देते हैँ । नतीजतन मच्छरोँ के लिए इंसानोँ का खून पीना मुश्किल हो जाता है । शोधकर्ताओँ का कहना है कि इस खोज से बाजार मेँ नए तरीके के लोशन और स्प्रे आ सकते है ।


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मंगलवार, 31 मई 2011

कैँसर की रेडिएशन के जरिए सर्जरी


फेफड़ोँ मेँ यदि शुरूआत मेँ ही कैँसर का पता लग जाए तो रेडियो सर्जरी काफी कारगर है । इस तकनीक मेँ बिना आँपरेशन रेडिएशन के जरिए सर्जरी का जाती है । कैँसर यदि बढ़ गया है तो कीमोथेरेपी और रेडियोथेरेपी के ही विकल्प बचते हैँ । सिर से लेकर गले तक के कैँसर मेँ बीमारी के फैलाव के आधार पर रेडियोथेरेपी या कीमोथेरेपी या सर्जरी की जाती है ।




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च्युंईँगम से स्मोकिँग को गुडबाय


प्रयाग अस्पताल के डाँ. इमरान कहते हैँ कि प्रमुख दवा निर्माता कंपनी सिपला फार्मास्युटिकल ने 'निकोटेक्स' जबकि फाइजर फार्मा ने 'चैँपिक्स' नाम से कुछ समय पहले च्युंईँगम लांच किये थे । 2 और 4 mg निकोटिन की क्षमता वाले ये च्युंईँगम खाते ही सिगरेट पीने या गुटख या मसाला खाने की तलब बिल्कुल खत्म हो जाती है ।
इनका असर 2 से 4 घंटे तक रहता है ।


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क्योँ लगती है निकोटिन (तंबाकू) की लत ?


सिगरेट का हर कश 10 सेकेंड के अंदर दिमाग को निकोटिन भेजता है । उसी दौरान इसके लती को चुस्ती और मन को शांति का अहसास होता है । यह अहसास ही और कश लेने या गुटखा खाने के लिए प्रेरित करता है ।
निकोटिन दिमाग के > उस हिस्से को सक्रिय बना देता है और निकोटिन की जरूरत लगातार पड़ने लगती है । जल्द ही दिमाग की संरचना बदल जाती है और व्यक्ति निकोटिन का लती हो जाता है ।



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शुक्रवार, 20 मई 2011

फायदेमंद है तरबूज

प्यास बुझाने मेँ तरबूज का जबाब नहीँ । तरबूज का 70 से 80 प्रतिशत भाग खाया जाता है । लाल रंग के गूदे वाले तरबूज मेँ सबसे अधिक लाइकोपिन पाया जाता है । लाइकोपिन एंटीआँक्सीडेँट की तरह काम करता है । तरबूज मेँ बीटा केरोटिन भी प्रचुर मात्रा मेँ पाया जाता है । इसके छिलके मेँ सिट्रलिन रसायन पाया जाता है जो शरीर मेँ एर्जीमिन अमिनो एसिड बनाता है । यह एसिड शरीर से अमोनिया व अन्य विषैले पदार्थोँ को शरीर से बाहर निकालने मेँ सहायता करता है ।

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रविवार, 8 मई 2011

संगीत से चिकित्सा होगी अब

अगर आप पेट दर्द या सिर दर्द से तड़पते हुए अस्पताल पहुंचे और वहां पहुंचने पर डाक्टर दवा देने के बजाय आपको संगीत सुनाने लगे तो चौंके नहीं। शायद आपको विश्वास नहीं हो, लेकिन आने वाले समय में संगीत को कई बीमारियों के इलाज का कारगर नुस्खे के तौर पर इस्तेमाल में लाया जाने वाला है। विदेश के साथ साथ भारत के कई अस्पतालों में भी इसका इस्तेमाल किया जा रहा है।


स्वास्थ्य पर संगीत के प्रभाव को लेकर अनेक देशों में हुए वैज्ञानिक अध्ययनों से पता चला है कि मनपसंद संगीत सुनने से ब्लड प्रेशर में कमी आती है, दिल की धड़कन नियमित होती है, डिप्रेशन दूर होता है, बेचैनी में कम होती है और ध्यान केंद्रित करने की क्षमता बढ़ती है। आपरेशन के दौरान या उसके बाद दर्द निवारक दवाइयों की जरूरत कम होती है, कीमोथिरेपी के बाद उल्टी की शिकायत कम होती है, दर्द से राहत मिलती है और पार्किसन के रोगी के अंगों में स्थिरता आती है। संगीत चिकित्सा का इस्तेमाल प्रसव पीड़ा को कम करने के अलावा सिर दर्द और सर्दी, जुकाम जैसी रोजमर्रे की समस्याओं को दूर करने में भी हो रहा है। पश्चिमी देशों में संगीत का इस्तेमाल पार्किसन व अल्जाइमर जैसी खतरनाक बीमारियों के इलाज में भी होता है।

नई दिल्ली के इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल के बॉडी माइंड क्लीनिक में आने वाले मरीजों के इलाज के लिए संगीत चिकित्सा का भी इस्तेमाल किया जाता है। इस क्लीनिक के प्रमुख और वरिष्ठ होलिस्टिक चिकित्सा विशेषज्ञ डा. रविंद्र कुमार तुली का कहना है कि मानसिक रोगों के मरीजों पर संगीत का चमत्कारिक असर होता है। संगीत मैटाबाल्जिम को तेज करता है, मांसपेशियों की ऊर्जा बढ़ाता है, श्वसन प्रक्रिया को नियमित करता है और ब्लड प्रेशर पर भी सकारात्मक प्रभाव डालता है।

दुनिया के अनेक देशों के साथ साथ भारत में भी संगीत को लेकर अनेक स्तरों पर अध्ययन-अनुसंधान हो रहे हैं। चेन्नई के अपोलो अस्पताल ने संगीत चिकित्सा पर एक साल का एक पाठ्यक्रम शुरू किया है। मुंबई के एक अस्पताल और नागपुर के डाक्टरों की एक टीम ने संगीत चिकित्सा के बारे में अलग-अलग प्रशंसनीय कार्य किए हैं। डयूटी के दौरान दिल के दौरे पड़ने के बढ़ रहे मामलों के मद्देनजर मंुबई पुलिस ने भी तनाव घटाने के लिए संगीत का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। बड़ोदरा में किए गए अध्ययनों में पाया गया कि शास्त्रीय संगीत अनेक तरह की समस्याओं को दूर करने में सहायक है। डाक्टरों का मानना है कि संगीत का उन्मादी लोगों पर भी सकारात्मक असर पड़ता है।
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सोमवार, 2 मई 2011

ऐसे रह सकते हैँ आप हेल्दी


शरीर के लिए डीटाँक्सिफिकेशन उतना ही जरूरी है , जितना घर के लिए सफाई। आप इन टिप्स को फाँलो करके तन-मन साफ रख सकते हैँ :


माँडर्न लाइफस्टाइल की वजह से बाँडी कई तरह के विषैले पदार्थोँ यानी टाँक्सिँस के प्रभाव मेँ आ जाती है । इससे बाँडी सुस्त रहती है और सिस्टम भी ढीला पड़ जाता है । जाहिर है , इससे काम पर इफेक्ट पड़ता है । ऐसे मेँ बाँडी को रेग्युलर डीटाँक्सिफाई करना चाहिए यानी ऐसी डाइट लेँ , जिससे बाँडी से टाँक्सिँस निकल जाएँ ।


क्योँ करेँ डीटाँक्स :-
बाँडी मेँ जब विषैले पदार्थ इकटठे होते हैँ , तब काम करने की कैपेसिटी कम हो जाती है । इससे दिमाग भी थका हुआ महसूस करता है और आप पूरी तरह रीलैक्स फील नहीँ कर पाते हैँ । बाँडी मेँ टाँक्सिँस के जमा होने से और भी कई तरह की परेशानियां हो सकती हैँ । मसलन सेल्स मेँ इनके जमा होने से इम्युनिटी सिस्टम कमजोर हो सकता है , जिससे जुकाम , खांसी , लगातार छीँकेँ आती हैँ । इनसे बचने के लिए डीटाँक्सिफिकेशन तो जरूरी है ही , इसी के साथ डाइट कंट्रोल , एक्सरसाइज , मसाज , रीफलैक्सोलजी , ब्रीदिँग टेक्नीक , मेडिटेशन वगैरह भी जरूरी है ।


ये हैँ फायदे :-
डिटाँक्सिफिकेशन स्टेमिना बढ़ाने का बेहतर तरीका है । इससे आप लाइट , फ्री और फ्रेश महसूस करेँगे । इससे होने वाले तमाम फायदोँ मेँ स्किन व काँम्प्लेक्शन का अच्छा होना, इम्युनिटी सिस्टम का स्ट्राँन्ग होना, पाचन क्षमता का बढ़ना, स्टेमिना और एनर्जी लेवल बढ़ना, मेटाबाँलिज्म का इंप्रूव होना वगैरह हैँ ।
डीटाँक्सिफिकेशन मे ली जाने वाली डाइट से हानिकारक पदार्थ बाहर निकल जाते हैँ और पूरी बाँडी का सिस्टम क्लीन हो जाता है । इस दौरान सबसे ज्यादा इफेक्ट डाइजेस्टिव सिस्टम पर पड़ता है, क्योँकि रिलीफ होने का पूरा टाइम मिलता है । इस प्रोसेस के दौरान फाइबर रिच डाइट मसलन फ्रूट्स, वेजिटेबल और साबुत अनाज ज्यादा लेँ वहीँ, लिक्विड मेँ फ्रूट जूस, वेजिटेबल जूस और सूप ही लेँ । इस दौरान स्मोकिँग, अल्कोहल, काँफी वगैरह ना लेँ । साथ ही, रेड मीट, फैट्स और शुगर जैसी चीजों से परहेज करेँ । दो से तीन दिन तक शाँर्ट व हल्की डाइट लेँ ।
डीटाँक्सिफिकेशन की साइकल हफ्ते मेँ एक दिन और महिने मेँ तीन दिन ही करेँ । अगर आप लंबे टाइम तक डीटाँक्सिफिकेशन डाइट लेना चाहते हैँ, तो डाइटिशियन की सलाह जरूर ले लेँ ।


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